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________________ इन्द्रभृति उस वृद्ध ब्राह्मण के मुख से श्लोक सुनकर विचार में 'पड़ गया कि छ: द्रव्य, नो पदार्थ, छह काय जीव, छह लेश्या, पाँच अम्तिकाय आदि का मैंने आज तक नाम भी नहीं सुना, वेद-वेदांग* का महान् जाता में हूँ परन्तु आर्हत दर्शन' का ज्ञान मुझे नहीं है, तव इमे ग्लोक की इन बातों को कैसे समझाऊँ ? किन्तु इसको अपनी अनभिज्ञता बतलाने में मेरा उपहासजनक अपमान है अतः इमकं गुरु के साय शास्त्रार्थ करके अपनी मान-मर्यादा रखना उचित है। एमा विचार कर इन्द्रभूति गौतम ने उस वृद्ध ब्राह्मण से कहा-'चल तेरे गुरु के माथ वात करूंगा' । कपट-रूप धारी 'इन्द्र' यही तो चाहता था, अतः वह मन-ही-मन अपनी मफलता जानकर वहुत प्रसन्न हुआ और गौतम को झटपट अपनं माथ समवशरण में ले आया। समवशरण के निकट पहुँचते ही जमे ही गौतम न मानस्तम्भ को देखा कि तत्काल उसके हृदय से ज्ञानमद स्वयं दूर हो गया और अभिमानी के वजाय वह नम्र विनयशील वन गया। ___ ममवशरण (धर्म-सभा) में प्रवेशकर जैसे ही उसने तीर्थकर महावीर का दर्शन किया कि तत्काल उसके हृदय में श्रद्धा जाग उठी । गौतम ब्राह्मण आया तो था वर्द्धमान महावीर से शास्त्रार्थ करने, किन्तु उनके निकट पहुंच कर वन गया उनका परम श्रद्धालु प्रमुख शिष्य । तीर्थकर महावीर की वीतरागता से वह इतना प्रभावित हुआ कि अपना समस्त परिग्रह त्यागकर वहीं महाव्रती दिगम्बर मुनि वन गया, मुनि वनते ही इन्द्रभूति ब्राह्मण को मनःपर्यय ज्ञान हो गया। इस घटना के होते ही तीर्थकर महावीर का मौन भंग हुआ और मेघगर्जना के समान दिव्य ध्वनि में उनका उपदेश प्रारम्भ हुआ। -धवला 1 खं, प. 65. 'गोतंण गोदयो विप्पो चाउव्वयसिंवि । णामेण वदिति सीलवं बम्हणुत्तमो॥ पम्नि कि नास्ति वा जीवस्तत्म्वरूपं निरूप्यताम् । इन्यप्राक्षमतो मायं भगवान् भक्तवत्सलः ।। -उत्तर पृ. 741360.
SR No.010812
Book TitleTirthankar Varddhaman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyanandmuni
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1973
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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