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________________ पर उतार दिये। अपने कृत्रिम (वनावटी) वेष को हटाकर प्राकृतिक स्वतंत्र, नग्न, श्रमण वेष धारण किया। अपने हाथों से अपने सिर के वालों का पाँच मुट्ठियों से लोंच किया, जो शरीर से मोह-त्याग का प्रतीक था। फिर 'नमः सिद्धेभ्यः' कहते हुए सिद्धों को नमस्कार करके पंच महाव्रत और पिच्छी-कमण्डलु धारण किये और सर्व सावद्य* का त्याग करके पद्मासन लगाकर आत्म ध्यान (सामयिक) में लीन हो गये। इन्द्र न तीर्थकर के वालों को समुद्र में क्षेपण करने के लिए रत्नमंजुषा में रख लिया। इस प्रकार अन्तिम तीर्थंकर महावीर का मगसिर वदी दशमी को हस्त तथा उत्तरा नक्षत्र के मध्यवर्ती समय में दीक्षाउत्सव करके समस्त इन्द्र, देव, मनष्य, विद्याधर अपने-अपने स्थानों को चले गये। वाहरी विचारों से मन को रोककर मौन भाव से अचल आसन में तीर्थंकर महावीर जव आत्मचिन्तन में निमग्न हुए, उसी समय उनके मनः पर्यय ज्ञान का उदय हुआ, जो निकट भविष्य में केवल ज्ञान के प्रकट होने का सूचक था । यह तीर्थंकर महावीर के आत्म-अभ्युदय का प्रथम चिह्न था । तपस्या महान कार्य-सिद्धि के लिए महान् परिश्रम करना पड़ता है। श्री वर्द्धमान तीर्थकर को अनादि समय का कम-वन्धन, जिसने अनन्त शक्तिशाली आत्माओं को दीन, हीन, बलहीन बनाकर संसार के बन्दोघर (जेलखाने) में डाल रखा है, को नष्ट करने के लिए कठोर तपस्या करनी पड़ो, तदर्थ वे जब आत्म-साधना में निमग्न हो जाते थे, तब कई दिन तक एक ही आसन में अचल बेठे या खड़े रहते थे। कभी-कभी एक मास तक लगातार आत्म ध्यान करते रहते थे। • 'सहप्रवर्धन पापेन वर्तते इति सावधं-संसार कारणम्'
SR No.010812
Book TitleTirthankar Varddhaman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyanandmuni
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1973
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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