SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 51
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ त्रिशला को समझाया कि, माता! तेरा पुत्र महान् वलवान, धीर-वीर है, वज्र-वृषभ-नाराच संहनन वाला है। अब वह उस सर्वोच्च पद को प्राप्त करने जा रहा है जिससे ऊँचा पद और कोई होता नहीं। तेरा पुत्र संसार से केवल आप अकेला ही पार नहीं होगा बल्कि असंख्य व्यक्तियों को भी संसार से उत्तीर्ण कर देगा। वीर माता! मोह का आवरण हटा दे !! तु धन्य है ! तुझे तारण-तरण, विश्व उद्धारक तीर्थंकर की जननी कहकर संसार अनन्त काल तक तेरा यशोगान करेगा।' देवों का संबोधन पाकर माता त्रिशला प्रबुद्ध हुई, फिर भी होने वाले पुत्र-वियोग से तथा यह साचकर कि विषधर सर्प, भयानक सिंह, वाघ आदि अन्य जीवों से भरे वन, पर्वत. गुफाओं में मेरा पुत्र अकेला कैसे रहेगा? उसका चित्त शोकाकुल रहा। वर्द्धमान ने अपनी माता, अपने परिवार तथा प्रियजनों को आश्वासन देकर उनसे विदा ली। कुण्डलपुर (वैशाली) से वाहर तगोवन में वर्द्धमान को ले जाने के लिए 'चन्द्रप्रभा* नामक मुन्दर दिव्य पालकी लायी गयी । उस पालकी में वर्द्धमान विराजमान हुए। जय-जयकार के हर्ष-घोष के साथ पहिले उस पालकी को मनुष्यों ने अपने कंधों पर उटाया, तदनन्तर इन्द्रों ने, देवों ने उस पालकी को अपने कन्धों पर रखा और आकाश-मार्ग से ज्ञातृखण्ड-वन में पहुंचे। वन हरा-भरा था, वहाँ शुद्ध वायु का निर्वाध संचार था। किसी तरह का कोलाहल न था और न मन को क्षुब्ध या विलित करने वाला कोई अन्य पदार्थ था। उस नीरव शान्त एकान्त वन में पालकी लाकर रखी गयी । तीर्थकर वर्द्धमान उस पालकी में बड़े उत्साह के साथ वाहर आये । वहाँ एक स्वच्छ शिला थी, जिस पर इन्द्राणी न रत्नचर्ण में स्वस्तिक (y) की कलापूर्ण रचना की थी। तीर्थंकर वर्षमान उस पर जाकर बैठ गये। तदनन्तर उन्होंने अपने शरीर के समस्त वस्त्राभूषण 'चन्द्रप्रभायशिविकामधिग्दो दृढ़वनः । अढां परिवृढेननं णां ततो विद्याधराधिपः ।।' -उनर पुराण, ७:/२६६.
SR No.010812
Book TitleTirthankar Varddhaman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyanandmuni
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1973
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy