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________________ [ ७५ श्रावक्रधर्म - प्रकाश ] शत्रु नहीं हैं—ऐसी भावनामें शानीको अनन्तानुबंधी कषायका पूर्व अभाव है । तत्पश्चात् अन्य राग-द्वेष आदिकी भी बहुत मन्दता हो गई है; और भावकको तो ( पंचम गुणस्थान में) इससे भी अधिक राग दूर हो गया है, तथा हिंसादिके परिणाम छूट गये हैं । — इस प्रकार भावकके देशव्रतका यह प्रकाशन है । आत्माका चिदानन्द स्वभाव पूर्ण रागरहित है, उसे जिसने श्रद्धामें लिया है। अथवा श्रद्धामें लेना चाहता है ऐसे जीवको रागकी कितनी मन्दता हो, देव-गुरुधर्मकी तरफ परिणाम किस प्रकारके हों, सर्वज्ञकी पहिचान कैसी हो– इन सब मेका इस अधिकारमें मुनिराजने बहुत सरल वर्णन किया है। सभामें यह तीसरी बार पढ़ा जा रहा है। महापुण्य हो तभी जैनधर्मका और सत्य श्रवणका ऐसा योग प्राप्त होता है: उसे समझनेके लिये अन्तरमें बहुत पात्रता होनी चाहिये। एक रागका कण भी जिसमें नहीं ऐसे स्वभावका श्रवण करनेमें और उसे समझनेकी पात्रतामें जो जीव आया उसे स्थूल अनीतिका, तीव्र कषायका, मांस-मद्य आदि अभक्ष्यके भक्षणका तथा कुदेव - कुगुरु-कुधर्मके सेवनका तो त्याग होता ही है; और सच्चे देव-गुरु-शास्त्रका आदर, साधर्मीका प्रेम, परिणामोंकी कोमलता, विषयोंकी मिठासका त्याग, वैराग्यका रंग- पेसी योग्यता होती है। ऐसी पात्रता विना ही तत्त्वज्ञान हो जाय ऐसा नहीं । भरत चक्रवर्तीके छोटी-छोटी उम्र के राजकुमार भी आत्माके भान सहित राजपाट में थे, उनका अंतरंग जगतसे उदास था। छोटे राजकुमार राजसभामें आकर दो घड़ी बैठते हैं वहाँ भरतजी राज-भंडारमेंसे करोड़ों सोनेकी मोहरें उन्हें देने को कहते हैं, परन्तु छोटेसे कुमार वैराग्यले कहते हैं-पिताजी ! ये सोनेकी मोहरें राज-भंडार में ही रहने दो, हमें इनसे क्या करना है ? हम तो मोक्षलक्ष्मीकी साधना के लिये आये हैं, पैसा एकत्रित करनेके लिये नहीं आये । परके साथ हमारे सुखका सम्बन्ध नहीं, परसे निरपेक्ष हमारा सुख दादाजी ( ऋषभदेव भगवान ) के प्रतापसे हमने समझा है, और इसी सुखको साधना चाहते हैं । देखो, कितना वैराग्य ! यह तो पात्रता समझने के लिये एक उदाहरण दिया। इसप्रकार धर्मकी योग्यतावाले जीवको अन्य सब पदार्थोंकी अपेक्षा आत्मस्वभावका देव-गुरु- धर्मका विशेष प्रेम होता है, और सम्यक्मान सहित वह रागादिको दूर करता जाता है। उसमें बीच-बीचमें दानके प्रकार देवपूजा आदि किसप्रकारके होते हैं यह बताया, अब उस दानका फल कहेंगे । हमारी आत्मामें है - ऐसा
SR No.010811
Book TitleShravak Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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