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________________ [ श्रावकधर्म-प्रकाश अन्तरमें देखनेसे पर-सम्बन्धी कोई भय तुझे नहीं रहेगा-इस प्रकार नित्य अभयस्वरूप समझकर शानी सच्चा अभयदान देता है, उसमें सब दान समाविष्ट हो जाते हैं। परन्तु जो जीव ऐसा समझनेकी योग्यतावाले न हों उन दुःखी जीवों पर भी श्रावक करुणा करके जिस प्रकार उनका भय कम हो उस प्रकार उन्हें आहार, औषध आदिका दान देता है । अपनी आत्माका भय दूर हुआ है और अन्यको अभय देनेका शुभभाव. आता है-ऐसी श्रावककी भूमिका है। अपना ही भय जिसने दूर नहीं किया यह : अन्यका भय कहाँसे मिटायेगा? अज्ञानीको भी जो करुणाभाव आता है, दानका, भाव आता है उसमें उसे भी शुभभाव है, परन्तु ज्ञानी जैसा उत्तम प्रकारका भाव उसे नहीं होता। देखो, कितने ही जीव असंयमी जीवोंके प्रति दया-दानके परिणामको पाप बताते हैं, यह तो अत्यन्त विपरीतता है। भूखेको कोई खिलाये, प्यासेको पानी पिलाये, दुष्काल हो, गायें घासके बिना मरती हों और कोई दयाभावसे उन्हें हरा घास खिलाये तो उसमें कोई पाप नहीं; उसके दयाके भाव हैं वे पुण्यके कारण हैं । जीव-दयाके भावमें पाप बतावे उसे तो बहुत बड़ी विपरीतता है। धर्म वस्तु तो अभी पृथक् है, परन्तु इसे तो पुण्य और पापके बीचका भी विवेक नहीं। इसी प्रकार कोई जीव पंचेन्द्रिय आदि जीवोंकी हिंसा करके उसमें धर्म मनाता है, वह तो महान् पापी है। ऐसे हिंसामार्गको जिज्ञासु कभी ठीक नहीं मानता। एक भी जीवको मारनेका अथवा दुःखी करनेका भाव धर्मी श्रावकको होता नहीं। अरे धीतरागमार्गको साधने आया उसके परिणाम तो कितने कोमल हों ! पत्ननंदी स्वामी तो कहते हैं कि-मेरे निमित्तसे किसी प्राणीको दुःख न हो। किसीको मेरी निन्दासे अथवा मेरे दोष प्रहण (देखना) करनेसे सन्तोष होता हो तो इस प्रकार भी वह सुखी होवे; किसीको इस देहनाशकी इच्छा हो तो वह यह देह लेकर भी सुखी होवे । अर्थात् हमारे निमित्तसे किसीको भय न हो, दुःख न हो । अर्थात् हमें किसीके प्रति देष अथवा क्रोध न हो . इस प्रकार स्वयं अपने वीतरागभाषमें रहना चाहता है। यहाँ तो चारित्रवंत मनिकी मुख्यतासे बात है, उसमें गौणरूपसे श्रावक भी आ जाता है, क्योंकि श्रावकको भी अपनी भूमिका अनुसार ऐसी ही भावना होती है। सामनेका जीव स्वयं अपने गुण-दोषके कारण अभयपना प्राप्त करे अथवा न करे यह वस्तु उसके आधीन है, परन्तु वहाँ ज्ञानीको अपने, . भावमें सब जीवोंको अभय देनेकी वृत्ति है। हमारा कोई शत्रु नहीं, हम किसीके..
SR No.010811
Book TitleShravak Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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