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________________ भावकधर्म-प्रकाश ] समझना कम हो जावेगा-ऐसी ईर्षावश या मानवशः शाल पढ़नेको मांगे और वह न दे-ऐसे जीवको शानका सच्चा प्रेम नहीं और शुभ भावका भी ठिकाना नहीं। भाई, अन्य जीव शानमें आगे बढ़ता हो तो भले बढ़े, तुझे उसका अनुमोदन करना चाहिये। तुझे शानका प्रेम हो तो, अन्य भी ज्ञान प्राप्त करे इसमें अनुमोदन हो कि ईर्षा हो? अन्यके ज्ञानकी जो ईर्षा आती है तो तुझे शास्त्र पढ़-पढ़कर मानका पोषण करना है, तुझे ज्ञानका सच्चा प्रेम नहीं। ज्ञानके प्रेमीको अन्यके शानको ईर्षा नहीं होती परन्तु अनुमोदना होती है। एक जीव यहुत समयसे मुनि हो, दूसरा जीव पीछेसे अभी ही मुनि हुआ हो और शीघ्र केवलज्ञान प्राप्त करले. यहाँ पहले मुनिको ऐसी ईर्षा नहीं होती कि अरे, अभी तो आज ही दीक्षा ली और मुझसे पहले इसने केवलज्ञान प्राप्त कर लिया ! परन्तु उलटकर अनुमोदना आती है कि वाह ! धन्य है से कि इसने केवलज्ञान साध लिया, मुझे भी यही इष्ट है, मुझे भी यही करना है...... इसप्रकार अनुमोदना द्वारा अपने पुरुषार्थको जागृत करता है। ईर्षा करने वाला तो अटकता है, और अनुमोदना करने वाला अपने पुरुषार्थको जागृत करता है। अपने अंतरंगमें जहां शानस्वभाषका बहुमान है वहाँ रागके समय शानकी प्रभावनाका और अनुमोदनाका भाव आये बिना नहीं रहता। मानके बहुमान द्वारा यह थोड़े ही समयमें केवलज्ञान प्राप्त करेगा। रागका फल केवलशान नहीं परन्तु ज्ञानके बहुमानका फल केवलज्ञान है। और साथमें शुभरागसे जो उत्तम पुण्यबंध है उसके फलमें समवशरण आदिको रचना होगी और इन्द्र महोत्सव करेगा। अभी यहाँ चाहे किसीको खबर न हो परन्तु केवलशान होते ही तीनलोकमें आश्चर्यकारी हलचल हो जावेगी, इन्द्र इसका महोत्सव करेंगे और तीनलोकमें आनन्द होगा। अहो, यह तो वीतरागमार्ग है ! वीतरागका मार्ग तो वीतराग हो होता है ना? वीतरागभावकी वृद्धि हो यही सची मार्गप्रभावना है। रागको जो आदरणीय बताये वह जीव वीतरागमार्गकी प्रभावना कैसे कर सकता है? उसे तो रागकी ही भावना है। जैनधर्मके चारों अनुयोगोंके शास्त्रोंका तात्पर्य वीतरागता है। धर्मी जीव वीतरागी तात्पर्य बताकर चारों अनुयोगोंका प्रचार करे। प्रथमानुयोगमें तीर्थकरादि महान् धर्मात्माओंके जीवनकी कथा, चरणानुयोगमें उनके आचरणका वर्णन, करणानुयोगमें गुणस्थान आदिका वर्णन और द्रव्यानुयोगमें अध्यात्मका वर्णन-न बार प्रकारके शास्त्रोंमें वीतरागताका ही तात्पर्य है । इन शास्त्रोंका बहुमानपूर्वक स्वयं अभ्यास करे, प्रचार और प्रसार करे । जवाहरातके गहने या बहुमूल्य वन माविको कैसे प्रेमसे घरमें सम्भालकर रखते हैं,-सकी अपेक्षा विशेष प्रेमसे शासको
SR No.010811
Book TitleShravak Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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