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________________ [ श्रावकधर्म-प्रकाश ६८ ] समझाने अथवा प्रचार करनेके बहाने अपनी मान-प्रतिष्ठा अथवा बड़प्पनकी भावना हो तो वह पाप है । धर्मीको ऐसी भावना नहीं होती । धर्मात्मा तो कहता है कि अरे, हमारी ज्ञानचेतनासे हमारा कार्य हमारी आत्मामें हो रहा है, वहाँ बाहर अन्यको बतानेका क्या काम है ! अन्य जीव जाने तो इसे संतोष हो ऐसा नहीं, इसे तो अन्तरमें आत्मासे ही सन्तोष है । 66 स्वयं एकाकी अन्तरमें अपनी आत्माका कल्याण कर ले वह बड़ा, अथवा बहुतसे जीवोंको समझावे वह बड़ा ? " - अरे भाई ! अन्य समझे कि न समझे उसके साथ इसको क्या सम्बन्ध ? कदाचित् अन्य बहुतसे जीव समझें तो भी उस कारणसे इसे जरा भी लाभ हुआ हो ऐसा नहीं; और धर्मीको कदाचित् वाणीका योग कम हो ( - मूक केवली भगवानकी तरह वाणीका योग न भी हो ) तो उससे कोई उसका अन्तरका लाभ रुक जावे ऐसा नहीं । बाह्यमें अन्य जीव समझे इस परसे धर्मोका जो माप करना चाहता है उसे धर्मीकी अन्तरदशाकी पहचान नहीं । यहाँ ज्ञानदानमें तो यह बात है कि स्वयंको ऐसा भाव होता है कि अन्य जीव भी सच्चे ज्ञानको प्राप्त हों, परन्तु अन्य जीव समझें या न समझें यह उनकी योग्यता पर है, उनके साथ इसे कोई लेना-देना नहीं । स्वयंको पहले अज्ञान था और महादुःख था, वह दूर होकर स्वयंको सम्यग्ज्ञान हुआ और अपूर्व सुख प्रगट हुआ अर्थात् स्वयंको सम्यग्ज्ञानकी महिमा भासी है, इससे अन्य जीव भी ऐसे सम्यग्ज्ञानको प्राप्त हों तो उनका दुःख मिटे और सुख प्रगटे - इस प्रकार धर्मीको अन्तर में ज्ञानकी प्रभावनाका भाव आता है और साथमें उसी समय अन्तरमें शुद्धात्माकी भावनाले ज्ञानकी प्रभावना - उत्कृष्ट भावना और वृद्धि अन्तरमें हो रही है। देखो, यह भावककी दशा ! ऐसी दशा हो तभी जैनका श्रावकपना कहलाता है, और मुनिदशा तो उसके पश्चात् होती है। उसने सर्वज्ञका और सर्वशकी वाणीका स्वयं निर्णय किया है। जिसे स्वयंको ही निर्णय नहीं वह सच्चे ज्ञानकी क्या प्रभावना करेगा ? यह तो अपने ज्ञानमें निर्णय सहित धर्मात्माकी बात है । और धर्मात्माको, विशेष बुद्धिमानको बहुमानपूर्वक शास्त्र देना वह भी ज्ञानदान है; शास्त्रोंका सचा अर्थ समझाना, प्रसिद्ध करना वह भी ज्ञानदानका मेद है। किसी साधारण मनुष्य को ज्ञानका विशेष प्रेम हो और उसे शास्त्र न मिलते हों तो धर्मी उसे प्रेमपूर्वक प्रबन्ध करके देवे। - ऐसा भाव धर्मीको आता है । अपने पास कोई शास्त्र हो और दूसरेके पास न हो वहाँ, अन्य पढ़ेगा तो मुझसे आगे बढ़ जावेगा अथवा मेरा
SR No.010811
Book TitleShravak Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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