SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 71
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीषकधर्म-प्रकाश ] Lue नहीं रहना चाहिये; क्योंकि इसमें कदाचित् कोई जीव तीर्थकर होने वाला हो तो ! इसप्रकार जिमानेमें उसे अव्यक्तरूपसे तीर्थकर आदिके बहुमानका भाव है । उसीप्रकार यहाँ मुनिको आहार देने वाले श्रावककी दृष्टि मोक्षमार्ग पर है, आहार देऊँ और पुण्य बँधे इस पर उसका लक्ष्य नहीं। इसका एक दृष्टान्त आता है कि कोईने भक्तिसे एक मुनिराजको आहारदान दिया और उसके आँगनमें रत्नवृष्टि हुई, दूसरा कोई लोभी मनुष्य ऐसा विचारने लगा कि मैं भी इन मुनिराजको आहारदान हूँ जिससे मेरे घर रत्नोंकी वृष्टि होगी। देखो, इस भावनामें तो लोभका पोषण है। श्रावकको ऐसी भावना नहीं होती; श्रावकको तो मोक्षमार्गके पोषणकी भावना होती है कि अहो ! चैतन्यके अनुभवसे जैसा मोक्षमार्ग ये मुनिराज साध रहे हैं वैसा मोक्षमार्ग में भी सार्धं; ऐसी मोक्षमार्गको प्रवृत्तिकी भावना उसे वर्तती है। इसलिये इस क्लिष्ट कालमें भी प्रायः ऐसे श्रावकों द्वारा मोक्षमार्गकी प्रवृत्ति है-ऐसा कहा है। अन्दर में शुद्धदृष्टि तो है, रागसे पृथक् चैतन्यका वेदन हुआ है, वहाँ भावकको ऐसे शुभभाव आयें उसके फलसे वह मोक्षफलको साधता है ऐसा भी उपचारसे कहा जाता है, परन्तु वास्तवमें उस समय अंतर में जो रागसे परे दृष्टि पड़ी है वही मोक्षको साध रही है । (प्रवचनसार गाथा २५४ में भी इसी अपेक्षा बात की है। ) अन्तर्दृष्टिको समझे बिना मात्र रागसे वास्तविक मोक्षप्राप्ति मान ले तो उसे शास्त्रके अर्थकी अथवा संतोंके हृदयकी खबर नहीं, मोक्षमार्गका स्वरूप वह नहीं जानता । यह अधिकार ही व्यवहारकी मुख्यतासे है, इसलिये इसमें तो व्यवहार-कथन होगा; अन्तर्दृष्टिका परमार्थ लक्ष्यमें रखकर समझना चाहिये । एक ओर जोरशोरसे भार देकर ऐसा कहा जाता है कि भूतार्थस्वभावके माभयसे ही धर्म होता है, और यहाँ कहा कि आहारके या शरीरके निमित्तले धर्म टिकता है, तो भी उसमें कोई परस्पर विरोध नहीं, क्योंकि पहला परमार्थकथन है और दूसरा उपचारकथन है। मोक्षमार्गकी प्रवृत्ति प्रायः गृहस्थ द्वारा दिये हुये दानले चलती है, इसमें प्रायः शब्द यह सूचित करता है कि यह नियमरूप नहीं, जहाँ शुद्धात्माके आश्रयसे मोक्षमार्ग टिके वहाँ आहारादिको निमित्त कहा जाता है, इसलिये यह तो उपचार ही हुआ । शुद्धात्माके आश्रयसे मोक्षमार्ग टिकता है - यह नियमकप सिद्धान्त है, इसके बिना मोक्षमार्ग हो नहीं सकता । सुख अर्थात् मोक्षः आत्माकी मोक्षदशा यही सुन है, इसके अलावा मकानमें, पैसेमें, लीमें, रागमें, कहीं सुख नहीं, धर्मीको आत्मा सिवाय कहीं सुखबुद्धि नहीं ।
SR No.010811
Book TitleShravak Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy