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________________ ५८] [ भावकधर्म-प्रकाश सब जीवोंको सुख चाहिये। पूर्ण सुख मोक्षदशामें है। 8 मोक्षका कारण सम्यग्दर्शन-बान-चारित्र है। * यह रत्नत्रय निग्रंथ मुनिको होता है। * मुनिका शरीर आहारादिके निमित्तसे टिकता है। * आहारका निमित्त गृहस्थ-श्रावक है। * इसलिये परम्परासे गृहस्थ मोक्षमार्गका कारण है। जिस भावकने मुनिको भक्तिसे आहारदान दिया उसने मोक्षमार्ग टिकाया ऐसा परम्परा निमित्त अपेक्षा कहा है। परन्तु इसमें आहार लेनेवाला और देनेवाला दोनों सम्यग्दर्शन सहित हैं, दोनोंको रागका निषेध और पूर्ण विज्ञानघन स्वभाषका आदर वर्तता है । आहारदान देनेवालेको भी सत्पात्र और कुपात्रका विवेक है। चाहे जैसे मिथ्यारष्टि अन्यलिंगीको गुरु मानकर आदर करे उसमें मिथ्यात्वकी पुष्टि होती है। धर्मी श्रावकको तो मोक्षमार्गकी प्रवृत्तिका प्रेम है। सुख तो मोक्षदशामें है ऐसा उसने जाना है इसलिये उसे अन्य कहीं सुखबुद्धि नहीं । रत्नत्रयधारी दिगम्बर मुनि ऐसे मोक्षसुखको साध रहे हैं, इससे मोक्षाभिलाषी जीवको ऐसे मोक्षसाधक मुनिके प्रति परम उल्लास, भक्ति और अनुमोदना आती है। वहाँ आहारदान आदि. के प्रसंग सहज ही बन जाते हैं। देखो, यहाँ तो श्रावक भी ऐसा है कि जिसे मोक्षदशामें ही सुख भासित हुआ है, संसारमें अर्थात् पुण्यमें-रागमें-संयोगमें कहीं सुख भासता नहीं । जिसे पुण्यमें मिठास लगे, रागमें सुख लगे, उसे मोक्षके अतीन्द्रिय सुखकी प्रतीति नहीं, और मोक्षमार्गी मुनिवरके प्रति..उसे सच्ची भक्ति उल्लसित नहीं होती । मोक्षसुख तो रागरहित है इसे पहचाने बिना, रागको सुखका कारण माने उसे मोक्षकी अथवा मोक्षमार्गी संतोंकी पहचान नहीं। और पहचान बिनाकी भक्तिको सभी भक्ति नहीं कही जाती। मुनिको आहारदान देनेवाले श्रावकका लक्ष्य मोक्षमार्ग पर है कि महो ! मे धर्मात्मा मुनिराज मोक्षमार्गको साध रहे हैं। वह इस मोक्षमार्गके बहुमानसे और उसकी पुटिकी भावनासे माहारदान देता है इससे उसे मोक्षमार्ग टिकानेकी भावना है और अपने में भी वैसा ही मोक्षमार्ग प्रगट करनेकी भावना है, इसलिये कहा है कि माहारदान देनेवाले भावक द्वारा मोक्षमार्गकी प्रवृत्ति होती है । जैसे बहुत बार संघ जिमाने वालेको ऐसी भावना होती है कि इसमें कोई जीव बाकी
SR No.010811
Book TitleShravak Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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