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________________ सची थी, परन्तु एकने लोभवश उसमें दो विन्दु बड़ा दिये और दूसरेने वह रकम सम्पूर्ण उड़ा दी। उसी प्रकार अनादि जिनमार्गमें जिनप्रतिमा, जिनमन्दिर, उनकी पूजा आदि यथार्थ है। परन्तु पकने दो बिन्दुओंकी तरह उसके ऊपर यत्र-आभरण आदि परिग्रह बढ़ाकर विकृति कर डाली और दूसरेने तो शास्त्रमें मूर्ति ही नहीं ऐसा गलत अर्थ करके उसका निषेध किया। और इन दो के अलावा वीतरागी जिनप्रतिमाको स्वीकार करके भी उस तरफके शुभरागको जो मोक्षका साधनरूप धर्म बतावे उसने भी धर्मके सच्चे स्वरूपको नहीं समझा है। भाई, जिनप्रतिमा है, उसके वन-पूजनका भाव होता है, परन्तु उसकी सीमा कितनी ? कि शुभराग जितनी । इससे भागे बढ़कर इसे जो तु परमार्थधर्म मान ले तो वह तेरी भूल है। एक शुभविकल्प उठे वह भी वास्तवमें धानका कार्य नहीं: मैं तो सर्वस्वभावी हूँ, जैसे सर्वशमें विकल्प नहीं वैसे ही मेरे ज्ञानमें भी रागरूपी विकल्प नहीं । " ये विकल्प उठते हैं न ?" तो कहते हैं कि वह कर्मका कार्य है, मेग नहीं। मैं तो शाम है. नका कार्य राग कैसे हो?-इस प्रकार ज्ञानीको रागसे पृथक कालिक स्वभावके भावपूर्षक उसे टालनेका उद्यम होता है । जिसने रागसे पृथक अपने स्वरूपको नहीं जाना और रागको अपना स्वरूप माना है वह रागको कहाँसे टाल सकेगा? ऐसे मेदज्ञानके बिना सामायिक भी सच्ची नहीं होती। मामायिक तो दो घड़ी अन्तरमें निर्विकल्प आनन्द के अनुभवका एक अभ्यास है। और दिन-रात चौबीस घण्टे आनन्दके अनुभवकी जाँच उसका नाम प्रौषध है; और शरीर छूटने के प्रसंगमें अन्तरमें एकाग्रताका विशेष अभ्यासका नाम संल्लेखना अथवा संथाग है। परन्तु जिसे गगसे भिन्न आत्मस्वभावका अनुभव ही नहीं उसे कैसी सामायिक ? और कैसा प्रौषध ? और कैसा संथारा ? भाई, यह वीतरागका मार्ग जगतसे न्यारा है। यहाँ अभी सम्यकदर्शन सहित जिसने व्रत अंगीकार किये हैं ऐसे धर्मी श्रावकको जिगपूजा आदिके उपरान्त दानके भाव होते हैं उसकी चर्चा चल रही है। तीव लोभरूपी कुवेकी खोलमें फँसे हुए जीवोंको उसमेंसे बाहर निकलनेके लिये श्री पद्मनन्दी स्वामीने करुणा करके दानका विशेष उपदेश दिया है। दान अधिकारकी छयालीसवीं गाथामें कौधेका दृष्टान्त देकर कहा है कि जो लोभी पुरुष दान नहीं देता और लक्ष्मीके मोहरूपी बन्धनसे बँधा हुआ है उसका जीवन व्यर्थ है; उसकी अपेक्षा तो वह कौवा श्रेष्ठ है जो अपनेको मिली हुई जली खुरचनको काँव काँध करके दूसरे कौवोंको बुलाकर खाता है। जिस समयमें तेरे गुण जले अर्थात् उनमें विकृति हुई उस समयमें रागसे पुण्य था, उस पुष्यसे कुछ सममी. मिली, और अब तू सत्पात्रके
SR No.010811
Book TitleShravak Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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