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________________ [ भावकधर्म-प्रकाश प्रश्नः-देव-गुरु-शास्त्र तरफका भाव तो पराश्रितभाव है न? उत्तरः-मेवानीको तो उस समय स्वयंके धर्मप्रेमका पोषण होता है। संसारसम्बन्धी स्त्री-पुत्र-शरीर-व्यापार आदि तरफके भावमें तो पापका पोषण है, उसको दिशा बदलकर-धर्मके निमित्तों तरफके भाव आ उसमें तो रागकी मन्दता होती है तथा वहाँ सच्ची पहिचानका-स्वाश्रयका अवकाश है। भाई, पराश्रयभाव तो पाप मौर पुण्य दोनों हैं, परन्तु धर्मके जिज्ञासुको पाप तरफका लगाव छूटकर धर्मके निमित्तरूप देव-गुरु-धर्मकी तरफ लगाव होता है ! इसका विवेक नहीं करे और स्वच्छन्द पापमें प्रवर्ते या कुदेवादिको माने उसे तो धर्मी होनेकी पात्रता भी नहीं। सर्वक्ष कैसे होते हैं। उनके साधक गुरु कैसे होते हैं, उनकी वाणीरूप शास्त्र कैसे होते हैं, शास्त्रोंमें आत्माका स्वभाव कैसा बतलाया है, उनके अभ्यासका रस होना चाहिये । सत्शास्त्रोंका स्वाध्याय शानकी निर्मलताका कारण है। लौकिक उपन्यास और अखबार पड़े उसमें तो पापभाव है। जिसे धर्मका प्रेम हो उसे दिनप्रतिदिन नये-नये वीतरागी श्रुतके स्वाभ्यायका उत्साह होता है। यह निर्णयमें तो है किसान मेरे स्वभावमेंसे ही आता है, परन्तु जबतक इस स्वभावमें एकान नहीं रहा जाता तबतक वह शास्त्र-स्वाध्याय द्वारा बारम्बार उसका घोलन करता है। सर्वार्थसिद्धिका देव तेतीस सागरोपम तक तत्त्वचर्चा करता है। इन सब देवोंको आत्माका भान है, एक भवमें मोक्ष जाने वाले हैं, अन्य कोई काम (व्यापारधन्धा या रसोई-पानीका काम) उनका नहीं है। तेतीस सागरोपम अर्थात् असंख्यात वर्षों तक चर्चा करते-करते भी जिसका रहस्य पूर्ण नहीं होता ऐसा गम्भीर भुतहान है, धर्मीको उसके अभ्यासका बड़ा प्रेम होता है, बानका चस्का होता है। चौबीसों घंटे केवल विकशामें या व्यवहार-धन्धेके परिणाममें लगा रहे और मानके अभ्यासमें जरा भी रस न ले-यह तो पापमें पड़ा हुभा है। धर्मी भाषकको तो शानका कितना रस होता है! प्रश्नः-परन्तु शास्त्र-अभ्यासमें हमारी बुद्धि न चले तो? उत्तरः-यह बहाना खोटा है। कदाचित् न्याय, व्याकरण या गणित जैसे विषयमें बुद्धि न चले, परन्तु जो आत्माको समझनेका प्रेम हो तो शालमें आत्माका स्वरूपं क्या कहा है ? उससे धर्म किस प्रकार हो-यह सब समझमें से नहीं आयेणा!.
SR No.010811
Book TitleShravak Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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