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________________ भावकधर्स - प्रकाश ] [10 बात सुननेको मिलना भी दुर्लभ हो गई है। और सुननेको मिले तो भी बहुतसे जीवोंको उसकी खबर नहीं पड़ती। यहाँ कहते हैं कि ऐसा दुर्लभ सम्यग्दर्शन पाकर उत्तम पुरुष मुनिधर्मको अंगीकार करे, वैराग्यस्वरूपमें रमणता बढ़ाये । प्रश्नः - शास्त्रमें तो कहा है कि पहले मुनिदशाका उपदेश दो । आप तो पहले सम्यग्दर्शनका उपदेश देकर पीछे मुनिदशा की बात करते हो ? सम्यग्दर्शन बिना मुनिपना होता ही नहीं ऐसी बात करते हो ! उत्तरः- यह बराबर है: शास्त्रमें पहले मुनिपनाका उपदेश देनेकी को कही है, वह तो श्रावकपना और मुनिपना इन दोकी अपेक्षाले पहले मुनिक्नेसीबात कही है, परन्तु कोई सम्यग्दर्शनके पहले मुनिपना ले लेने की बात नहीं की । सम्यग्दर्शन बिना तो मुनिधर्म अथवा श्रावकधर्म होता ही नहीं। इसलिये पहले सम्यग्दर्शनकी मुख्य बात करके मुनिधर्म भौर श्रावकधर्मकी बात को है । (शाल भाता है कि क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवोंमें देशसंयमकी अपेक्षा सीधा मुनिपना लेने वाले जीव बहुत होते हैं । ) भाई, पेस्त मनुष्यपना प्राप्त करके सम्यक्त्वसहित जो मुनिदशा हो तो अवश्य करना, वह तो उत्तम है, और जो इतना तेरी शक्तिकी हीनतासे नहीं हो सके, तों भावकधर्मके पालन द्वारा मनुष्यभवकी सार्थकता करना । ऐसा मनुष्यभव बार बार मिलना दुर्लभ है । यह शरीर क्षणमें नए होकर उसके रजकण हवामें उड़ जायेंगे । रजकण तारां रखडशे जेम रखडती रेत, पछी नरभव पामीरा क्यां? चेत चेत नर खेत ! जिस प्रकार एक वृक्ष बिस्कुल हरा हो और जलकर भस्म हो जाय और उसकी राज में चारों ओर उड़ जाय तो फिरसे वही परमाणु उसी वृक्षरूप हो जायें " अर्थात् एकत्रित होकर फिरसे उसी स्थान पर वैसे ही वृक्षरूप परिणमें- यह कितना दुर्लभ है ? मनुष्यपना तो उसकी अपेक्षा और भी दुर्लभ है । इसलिये तू इसे धर्मसेवनके बिना विषय-कषायोंमें ही नष्ट न कर । जिनदर्शन आदि छह कार्य थावकके प्रतिदिन होते हैं। यहाँ सम्यग्दर्शन सहित भावकी मुख्य बात है; सम्यग्दर्शन के पूर्व जिज्ञासु भूमिकामें भी गृहस्थों द्वारा जिवदर्शन-पूजा-स्वाध्याय आदि कार्य होते हैं। जो सच्चे देव-गुरु-शास्त्रको नहीं पहिच उनकी वासना नहीं करे, वह तो व्यवहारसे भी श्रावक नहीं कहलाता ।
SR No.010811
Book TitleShravak Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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