SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 37
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भावकधर्म - प्रकाश ] [ २५ सम्यकूदर्शन बिना, चाहे जितना करे तो भी चैतन्यका भंडार नहीं खुलता। मोक्षमार्ग प्रगट नहीं होता, श्रावकपना भी होता नहीं। जो जीव सच्चे देव-गुरु-धर्मका विरोध करता है और कुदेव, कुगुरु, कुधर्मका आदर करता है उसे तो व्यवहारसे भी श्रावकपना नहीं होता वह तो मिथ्यात्वके तीव्र पापमें डूबा हुआ है। पेले जीवको तो पूर्वका पुण्य हो वह भी घट जाता है। ऐसे जीवको तो महा पापी कहकर पहली ही गाथामें निषेध किया है। उसमें तो धर्मको भी योग्यता नहीं । यहाँ तो सच्चा श्रावक-धर्मात्मा होनेके लिये सबसे पहले सर्वदेवको पहचानपूर्वक सम्यक्दर्शनको शुद्ध करनेका उपदेश है । कोई कहे कि " हमने दिगम्बर धर्मके संप्रदाय में जन्म धारण किया है इसलिये सम्यक्दर्शन तो हमको होता ही है। " तो यह बात सच्चो नहीं। सर्वशदेवने जैसा कहा वैसा अपने चैतन्यस्वभावको पहचाने बिना कभी सम्यकदर्शन नहीं होता । दिगम्बर धर्म तो सच्चा ही है । परन्तु तू स्वयं समझे तब ना ! समझे बिना इस सत्यका तुझे क्या लाभ ? तेरे भगवान और गुरु तो सच्चे हैं परन्तु उनका स्वरूप पहचाने तभी तू सच्चा होगा। पहचान बिना तुझे क्या लाभ ? ( समझे बिन उपकार क्या ? ) धर्मकी भूमिका सम्यग्दर्शन है, और मिथ्यात्व बड़ा पाप है । मिथ्यादृष्टि मन्द कषाय करके उसे मोक्षका कारण माने वहाँ उसे अल्प पुण्यके साथ मिथ्यात्वका बड़ा पाप बँधता है। इसलिये मिथ्यात्वको भगवानने भवका बीज कहा है। मिध्यादृष्टि जीव पुण्य करे तो भी वह उसे मोक्षका कारण नहीं होता, समकितीको पुण्य-पाप होते हुवे भी वे उसे संसारका बीज नहीं हैं। समकितीको सम्यक्तमेंसे मोक्षकी फसल आवेगी: और मिथ्यादृष्टिको मिथ्यात्वमेंसे संसारका फल आवेगा इसलिये मोक्षाभिलाषी जीवोंको सम्यक्रदर्शनकी प्राप्तिका और उसकी रक्षाका परम उद्यम करना चाहिए | जो सम्यग्दर्शनका उद्यम नहीं करते और पुण्यको मोक्षका साधन समझकर उसकी रुचिमें अटक जाते हैं उसे कहते हैं कि भरे मूढ़ ! तुझे भगवानकी भक्ति करना नहीं आती, भगवान तेरी भक्तिको स्वीकार नहीं करते क्योंकि, तेरे ज्ञानमें तूने भगवानको स्वीकार नहीं किया । अपने सर्वशस्वभावको जिसने पहचाना उसने भगवानको स्वीकार किया, और भगवानने उसे मोक्षमागमें स्वीकार किया, वह भगवानका सच्चा भक्त हुवा। दुनिया चाहे उसे न माने या पागल कहे परन्तु भगवानने और सन्तोंने उसे मोक्षमार्गमें स्वीकार किया है, भगवानके घरमें वह प्रथम
SR No.010811
Book TitleShravak Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy