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________________ १५२] [स्वतंत्रताकी घोषणा बाम वह इच्छाका कार्य नहीं है और इच्छा बहानका कार्य नहीं है। जहाँ बानका कार्य इच्छा भी नहीं, वहाँ जड़ भाषा आदि तो उसका कार्य कहांसे हो सकता है? वह तो जड़का कार्य है। जगतमें जो भी कार्य होते हैं वह सत्की अवस्था होती है, किसी वस्तुके परिणाम होते है, परन्तु वस्तुके बिना अधरसे परिणाम नहीं होते । परिणामीका परिणाम होता है, मित्यस्थित वस्तुके आश्रित परिणाम होते हैं, परके आश्रित नहीं होते। परमाणुमें होंठोंका हिलना और भाषाका परिणमन-यह दोनों भी मित्र वस्तु है । मात्मामें इच्छा और शान-यह दोनों परिणाम भी भिन्न-भिन्न है। होंठ हिलनेके आश्रित भाषाको पर्याय नहीं है। होंठका हिलना वह होंठके पुद्गलोंके आश्रित है, भाषाका परिणमन वह भाषाके पुद्गलोंके आश्रित है। होंठ और भाषा, इच्छा और शान, -इन चारोंका काल एक होने पर भी चारों परिणाम अलग है। उसमें भी इच्छा और शान-यह दोनों परिणाम आत्माश्रित होने पर भी इच्छापरिणामके माभित बानपरिणाम नहीं है। ज्ञान वह आत्माका परिणाम है, इच्छाका नहीं, इसीप्रकार इच्छा वह आत्माका परिणाम है, शानका नहीं। इच्छाको जानने वालाहान वह इच्छाका कार्य नहीं है, उसीप्रकार वह मान इच्छाको उत्पन्न नहीं करता । इच्छा-परिणाम मात्माका कार्य अवश्य है परन्तु शानका कार्य नहीं। भिन्नभिन्न गुणके परिणाम भिन्न-भिन्न हैं, एक ही द्रव्यमें होने पर भी एक गुणके आमित दूसरे गुणके परिणाम नहीं है। कितनी स्वतंत्रता!! और इसमें परके आश्रयकी तो बात ही कहाँ रही ? आत्मामें चारित्रगुण इत्यादि अनन्तगुण है, उनमें पारित्रके विकृत परिणाम सो इच्छा है, वह चारित्रगुणके माश्रित है, और उस समय उस इच्छाका ज्ञान हुमा बह बानगुणकप परिणामीके परिणाम है, वह कहीं इच्छाके परिणामके आश्रित नहीं है। इसप्रकार इच्छापरिणाम और सानपरिणाम दोनोंका भिन्न परिणमन है, एक-दूसरेके भाभित नहीं है। - सत् जैसा है उसीप्रकार उसका गान करे तो सत् बान हो, मौर सत्का बान करे तो उसका बहुमान पवं यथार्षका आदर प्रगट हो, रुचि हो, श्रद्धा हो
SR No.010811
Book TitleShravak Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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