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________________ स्वतंत्रताको घोषणा ] चारित्र प्रगट नहीं होता, शांति नहीं होती, समाधान और सुख नहीं होता । इसलिये वस्तुस्वरूप क्या है उसे प्रथम समझना चाहिये। वस्तुस्वरूपको समझनेसे मेरे परिणाम परसे और परके परिणाम मुझसे -ऐसी पराश्रित बुखि ही रहती भाद स्वाभित-स्वसन्मुख परिणाम प्रगट होता है, यही धर्म है। _आत्माको जो शान होता है उसको जामनेके परिणाम मात्माके माश्रित, वे परिणाम वाणीके आश्रयसे नहीं हुए है, कानके आश्रयले नहीं हुए है तथा उस समयको इच्छाके आश्रयसे भी नहीं हुए हैं । यद्यपि इच्छा भी मात्मा परिणाम है, परन्तु उन परिणामोंके आश्रित ज्ञानपरिणाम नहीं हैं, बानपरिणाम भान्मवस्तु के मामिल हैं;-इसलिये वस्तुसन्मुख दृष्टि कर । बोलनेकी इच्छा हो, होंठ हिलें, भाषा निकले और उस समय उसप्रकारका शान हो, ऐसी चारों क्रियाएँ एकसाथ होते हुये भी कोई क्रिया किसीके आश्रित नहीं, सभी अपने-अपने परिणामीके ही आश्रित हैं । इच्छा वह आत्माके चारित्रगुणके परिणाम हैं, होंठ हिले वह होंठके रजकणों की अवस्था है, वह अवस्था इच्छाके माधारसे नहीं हुई । भाषा प्रगट हो वह भाषावर्गणाके रजकणोंकी अवस्था है वह अवस्था इच्छाके आश्रित या होंठके आश्रित नहीं हुई, परन्तु परिणामी ऐसे रजकणोंके भायसे वह भाषा उत्पन्न हुई है और उस समयका ज्ञान आत्मवस्तुके आश्रित है. इच्छा अथवा भाषाके आश्रित नहीं है,-ऐसा वस्तुस्वरूप है। भाई, तीनकाल तीनलोकमें सर्वश भगवानका देखा हुआ यह घस्तुस्वभाव है। उसे जाने बिना और समझनेकी परवाह बिना अन्धेकी भाँति चला जाता है. परन्तु वस्तुस्वरूपके सच्चे ज्ञानके बिना किमीप्रकार कहीं भी कल्याण नहीं हो सकता । इस वस्तुम्वरूपको बारम्बार लक्षमें लेकर परिणामोंमें मेदशान करनेके लिये यह बात है। एक वस्तुके परिणाम अन्य वस्तुके गाश्रित तो हैं नहीं. परन्तु उस वस्तुमें भी उसके एक परिणामके आश्रित दूसरे परिणाम नहीं है. परिणामी वस्तुके आखिम ही परिणाम है। यह महान सिद्धान्त है। प्रतिक्षण इच्छा, भाषा और ज्ञान यह तीनों एकसाथ होते हुए भी इच्छा और शान जीवके आश्रित हैं और भाषा वह जड़के आश्रित है; इच्छाके कारण माषा हुई और भाषाके कारण शान हुआ-ऐमा नहीं: उसीप्रकार इच्छाके आश्रित शान मी नहीं । इच्छा और शान-यह दोनों हैं तो आत्माके परिणाम तथापि एक आश्रित दूसरेके परिणाम नहीं हैं। ज्ञानपरिणाम और इच्छापरिणाम दोनों भिन्न-भिन्न है।
SR No.010811
Book TitleShravak Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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