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________________ स्वधर्म-प्रकाश ] [ a वह है कि जो उदारतापूर्वक अपनी लक्ष्मीको दानमें खर्च करता हो । भले लक्ष्मी थाड़ी हो परन्तु जिसका हृदय उदार है वह धनवान है । और लक्ष्मीका डेर होते हुए मी जिसका हृदय ओछा है- कंजूस है वह दरिद्री है। एक कहावत है कि जैसे युद्ध में तलवार चलानेका प्रसंग आवे वहीं राजपूतकी शूरवीरता छिपी नहीं रहती, वह घरके कोनेमें चुपचाप नहीं बैठता, उसका शौर्य उछल जाता है, उसी प्रकार जहाँ दानका प्रसंग आता है वहाँ उदार हृदयके मनुष्यका हृदय छिपा नहीं रहता; धर्मके प्रसंग में प्रभावना आदिके लिये दान करनेका प्रसंग आवे वहाँ धर्मके प्रेमी जीवका हृदय झनझनाहट करना उदारतासे उछल जाता है। वह बचने का बहाना नहीं ढूँढ़ता, अथवा उसे बार-बार कहना नहीं पड़ता परन्तु अपने उत्साहसे ही दान आदि करता है कि अहो ! ऐसे उत्तम कार्यके लिये जितना दान करूँ उतना कम है । मेरी जो लक्ष्मी ऐसे कार्यमें खर्च हो वह सफल है । इसप्रकार श्रावक दान द्वारा अपने गृहस्थपनेको शोभित करता है। शास्त्रकार अब इस बातका विशेष उपदेश देते हैं। કર रण चढ़ा रजपूत छुपे नहीं.... दाता छुपे नहीं घर माँगन आये..... *********** संसारमें जब हजारों प्रकारकी प्रतिकूलता एकसाथ आपड़े, कहीं मार्ग न सूझे, उस समय उपाय क्या ? उपाय एक ही कि- धैर्यपूर्वक ज्ञानभावना । ज्ञानभावना क्षणमात्रमें सब प्रकारकी उदासीको नट कर हितमार्ग सुझाती है, शांति देती है, कोई अलौकिक धैर्य और अचित्य शक्ति देती है । गृहस्थ श्रावकको भी "ज्ञानभावना" होती है। ** **** ****
SR No.010811
Book TitleShravak Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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