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________________ १८८) [ श्रावकधर्म-प्रकाश देव-गुरु-शास्त्रकी तरफके उल्लासके द्वारा संसारकी ओरका उल्लास कम होता है तब वहाँ दानादिके शुभभाव आते हैं, इसलिये गृहस्थको पाप घटाकर शुभभाष करना चाहिये-ऐसा उपदेश है। तृ शुभभाव कर ऐसा उपदेश व्यवहारमें होता है; परमार्थसे तो गगका कर्तृत्व आत्माके स्वभावमें नहीं। रागके कणका भी कर्तृत्व माने अथवा उसे मोक्षमार्ग माने तो मिथ्याष्टि है ऐसा शुद्धदृष्टिके वर्णनमें आता है। ऐसी दृष्टिपूर्वक रागकी बहुत मन्दता धर्मीको होती है। रागरहित स्वभाव दृषिमें ले और राग नहीं घटे ऐसा कैसे बने ? यहाँ कहते हैं कि जिसे दानादि शुभभावका भी पता नहीं, मात्र पापभावमें ही पड़ा है उसकी तो इस लोकमें भी शोभा नहीं और परलोकमें भी उसे उत्तम गति नहीं मिलती। पापसे बचनके लिये पात्रदान ही उत्तम मार्ग है । मुनिवरोंको तो परिग्रह ही नहीं, उनको तो अशुभ परिणति छूट गई है और बहुत आत्मरमणता वर्तती है-उनकी तो क्या बात ! यहाँ तो गृहस्थके लिये उपदेश है। जिसमें अनेक प्रकारके पापके प्रसंग हैं ऐसे गृहस्थपने में पापसे बखनेके लिये पूजा-दान-स्वाध्याय आदि कर्तव्य हैं । तीव्र लोभी प्राणीको सम्बोधन करके कार्तिकेय स्वामी तो कहते हैं कि अरे जीव ! यह लक्ष्मी चंचल है, इसकी ममता तू छोड़। तू तीन लोभसे अन्यके लिये (देव-गुरु-शास्त्रके शुभ कार्यों में ) तो लक्ष्मी नहीं खर्चता, परन्तु अपने शरीरके लिये तो खर्च ! इतनी तो ममता घटा। इस प्रकार भी लक्ष्मोकी ममता घटाना सीखेगा तो कभी शुभ कार्योंमें भी लोभ घटानेका प्रसंग आयेगा । यहाँ तो धर्मके निमित्तोंके प्रति उल्लासभावसे जो दानादि होता है उसकी ही मुख्य बात है । जिसे धर्मका लक्ष्य नहीं और कुछ मन्द रागसे दानादि करे तो साधारण पुण्य बँधता है, परन्तु यहाँ तो धर्मके लक्ष्य सहितके पुण्यकी मुख्यता है, इसलिये अधिकारके प्रारम्भमें ही अरहन्तदेवकी पहचान करायी है। शालमें तो जिस समय जो प्रकरण चलता हो उस समय उसका ही विस्तारसे वर्णन होता है, ब्रह्मचर्यके समय ब्रह्मचर्यका वर्णन होता है, और दानके समय दानका वर्णन होता है; मूलभूत सिद्धान्त लक्ष्यमें रखकर प्रत्येक कथनका भाव समझना चाहिये। लोगोंमें तो जिसके पास अधिक धन हो उसे लोग धनवान कहते हैं, परन्तु शासकार कहते हैं कि जो लोभी है उसके पास चाहे जितना धन पड़ा हो तो भी बह धनवान नहीं परन्तु रंक है, क्योंकि जो धन उदारतापूर्वक सत्कार्यमें खर्च करनेके काम न आवे, अपने हितके लिये काम न आवे मात्र पापबन्धका ही कारण हो वह धन किस कामका ? और ऐसे धनसे धनवानपना कौन माने ? सथा धनवान तो
SR No.010811
Book TitleShravak Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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