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________________ कर्ता-कर्म अधिकार [जीव बंधा आदि-नहीं है। भावार्थ----जीव द्रव्य का तो अनादि-निधन चेतना लक्षण है-- ऐसा जो द्रव्य मात्र का पक्ष ग्रहण करता है सो कहता है कि जोव द्रव्य बंधा है हो नहीं, सदा अपने ही म्वरूप है। कोई भी द्रव्य कभी भी अन्य द्रव्य के गुणपर्याय में नहीं परिणमन करना, मब ही द्रव्य अपने ही स्वरूप में अपने में परिणमन करते हैं। परन्तु जो जीव गद्ध चेतन-मात्र जीव के स्वरूप का अनुभव कर लेता है वह पक्षपात मे रहित होता है। भावार्थ----एक वस्तू में अनेक रूपों को कल्पना करना पक्षपात है। यह पक्षपात वस्तु मात्र का स्वाद आन पर स्वयं ही मिट जाता है। जिसको चैतन्यवस्तु के शुद्ध स्वरूप का अनुभव है उमको यह चेतना मात्र वस्तु है ऐसा प्रत्यक्ष रूप से स्वाद आता है ॥२५॥ मर्वया व्यवहार दृष्टि मों विलोकन बंध्यों मो दोसे, निहर्च निहारत न बांध्यो यह किन हो। एक पक्ष बंध्यो एक पक्ष सों प्रबन्ध सदा, दोउ पक्ष अपने प्रनादि घरे इनही॥ कोउ कहे समल विमलरूप कोउ कहे, चिदानन्द तंसा हो बखान्यो जैसे जिनही। बन्ध्यो माने खुल्यो माने नय के मेव जाने, सोई ज्ञानवंत जीव तत्त्व पायो तिनही ॥२५॥ वसंततिलका स्वेच्छासमुच्छलवनल्पविकल्पजाला मेवं व्यतीत्य महतीं नयपक्षकक्षाम् । अन्तर्बहिस्समरसंकरसस्वभावं __ स्वं भावमेकमुपयात्यनुभूतिमात्रम् ॥४५॥ पूर्वोक्न प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव शुद्ध स्वरूप के अनुभव मे, अन्तर और बाहर मे जिमको महज स्वभाव मे एकमी ममतारूप चेतना शक्ति है, उस वक्त एक शुद्ध स्वरूप चिद्रूप आत्मा का स्वाद लेता है। द्रव्याथिक व पर्यायाथिक भेदों के अंगोकार अर्थात् पक्षपातों के समूह तथा अनंत नयों के विकल्पां का दूर हो में छोड़ कर उस शुद्ध स्वरूप की प्राप्ति होती है।
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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