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________________ अजीव-आधका . की प्राप्ति न हो, ऐसा नहीं है, द्रव्यकर्म-भावकर्म-नोकर्म से भिन्न चेतनरूप तेजपज को अवश्य प्राप्ति होगी ॥२॥ संबंया-भैया जगवासी तं वासीह के जगत मों, एक छः महीना उपदेश मेरा मान रे। और संकलप विकलप के विकार तजि, ठिके एकांत मन एक ठौर प्रान रे॥ तेगे घट सर नामें तंहीहै कमल बाको, तूंही मधुकर है, हंगुवास पहिचान रे। प्रापनि न कछ ऐको शिवारत है, सही प्रापति मरूप गोंडी जान रे॥२॥ अनुष्टुप विच्छक्तिव्याप्तमर्वस्वसारो जीव इयानयं अतोऽतिरिक्ताः सर्वेऽपि नावाः पौद्गलिका प्रमी ॥३॥ दर्शन-जान-चरित्र-मुख-वीर्य इत्यादि चेतनामात्र के अनन्त गुणों से व्याप्त जीव, बस इतना ही है। द्रव्यकम-भावकम-नोकर्मरूप अशुद्ध रागादि विभाव परिणाम मत्र पुद्गल द्रव्य से उपजे हैं और गुट चननामात्र जीववस्नु मे अति ही भिन्न हैं । इमी ज्ञान का नाम अनुभव कहा है ॥३॥ दोहा-चेतनवन अनंत गुण, सहित मु प्रातमराम । यात अनमिन और मब, पुद्गल के परिणाम ॥३॥ मालिनी सकलमपि विहायालाय चिच्छतिरिक्तं स्फुटतरमवगाह स्वं च विच्छक्तिमात्रं । इममुपरि चरन्तं चारु विश्वस्य साक्षात् कलयतु परमात्मात्मानमात्मन्यनन्तं ॥४॥ जीवद्रव्य अपने में, आपको, निग्नर अनुभव करो । मानगुण से शून्य जो समस्त द्रव्यकर्म-भावकम-नोकर्म इत्यादि हैं उनका मूल से छोड़कर जीवद्रव्य अर्थात् आत्मा समस्त त्रैलोक्य में सर्वोत्कृष्ट है, उपादेय है, मुख स्वरूप है, शुद्ध स्वरूप है और शास्वत है। साक्षान ऐसा ही है, कुछ वड़ाई करके ऐसा नहीं कहा है । जैसा अनुभव में आया वैसा ही कहा है।
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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