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________________ ममयमार कलग टीका जल अपने बाप है। उमा नरह, ममागवस्था में जीव पर्याय में कर्मों से एक क्षत्र मिला हुआ है। उमी अवस्था में यदि गद्ध स्वरूप का अनुभव किया जाय नी ममम्न कम जीव स्वरूप में भिन्न है। जीव द्रव्य का म्वच्छ स्वरूप जमा कहा वैमा है। मी विवेकद्धि उमो भेदज्ञान दृष्टि के द्वारा उपजती है जिसके द्वाग गणधर मनावर का यह प्रतानि उपजी कि चेतना द्रव्य का अजीव म-जरकम-नांकम-भावकर्म में भिन्न भिन्नपना है। विस्तीर्ण अर्थात विशाल ज्ञानदृष्टि में जीव और कर्म का भिन्न-भिन्न अनुभव करता जीव जमा कहा वैमा है. ॥१॥ संबंया.... परम प्रतीति उपजाय गणधर कोसी, प्रतर प्रनादि की यिभवता विदारी है। मेव मान दृष्टि मों विवेक की, मकति ताप, खेनन प्रचन्न की दमा निग्वारी है । करम को नाश करि, अनुभौ प्रभ्याम धर्धार, हिये में हरवि निज उद्धता मंभारी है। नगय नाम गयो शुद्ध परकास भयो, मान को विलाम ताको बंदना हमारी है ॥१॥ मालिनी विरम किमपरेणाकार्यकोलाहलेन म्वयमपि निभृतः मन् पश्य षण्माममेकं । हृदयसरसि पुंसः पुद्गलादिन्नधाम्नो ननु किमनुपलब्धि ति कि चोपलब्धिः ॥२॥ कोई मिथ्यादृष्टि जीव-शरीर को जीव कहता है. कोई आठ कमों को जोब कहता है तथा कोई गगादि मूक्ष्म अध्यवसाय को जीव कहना है-इस प्रकार जो नाना मूठे विकल्प हो रहे हैं उनमे हे जीव ! विरक्त होकर, एकाग्ररूप होता हआ, जैसे भी बने विपरीतपन को छोड़ कर. शद चिद्रप मात्र का स्वसंवेदन प्रत्यक्षपने मे अनुभव कर । बारम्बार बहुत क्या कह, अनुभव करने से ही म्वरूप की प्राप्ति है। हे जाव ! हृदयरूपी मरांवर में जोवद्रव्य रूपी कमल को अप्राप्ति नहीं है। शुद्ध म्वरूप का अनुभव करने से स्वरूप
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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