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________________ ममयमार कलश टीका धनी देवि को भइया यह तो हमारे वस्त्र, बोनहो पहचानन हो त्यागभाव लह्यो है ॥ तसे ही प्रनादि प्रबगल मो मंजोगी जीव, मंग के ममत्व मों विभाव नामें बह्यो है। भेद-जान भयो जब प्रापा पर जान्यो तब, न्यारो परभाव मों मुभाव निज गयो है ॥२६॥ त्रोटक छन्द मर्वतः म्बरमनिर्भरभावं चेतये स्वयमहं स्वमिहैक । नास्ति नास्ति मम कश्चनमोहः शुद्ध निद्घनमहोनिधिरस्मि ॥३०॥ विभाव परिणाम जिमम छुट गया है, मैं एमी अनादि निधन चिद्र प वग्न ह जिमको मा म्वाद कि मैं ममम्त भेद वद्धि मे रहिन गद्ध वस्तु मात्र है स्वयं ही, उपदंग बिना ही. स्वमवेदन प्रत्यक्षम्प में आता है, ऐमी चिद्रप वम्न के भाव में उनके असम्यान प्रदंग चैनन्यपने में सम्पूर्ण है। ___ भावार्थ----जो कोई मा जानता है कि जैन सिद्धान्त का बारबार अभ्याम करने में दनु प्रतीति होती है उसका नाम अनुभव है. सो मा नहीं है। मिथ्यान्व कम के रम-पाक मिटने में मिथ्यान्व भावरूप परिणमन मिटता है नव वस्तु म्बम्प का जो प्रत्यक्ष आस्वाद आता है उसका नाम अनुभव है। अनुभवगील जीव अनुभव करता है कि मर माह अथांत् ममम्न विभावरूप अगद्ध परिणाम द्रपिडरूप और जीव मबंधो भाव परिणमनम्प ...सर्वथा ही----नहीं है, नहीं है । मैं समस्त विकल्पों में रहिन, चेतनपने का समूह उसके उद्यांत की निधि अर्थात् समुद्र है। भावार्थ कोई यह न जान ले कि सब ही नास्तिरूप होता है इसलिए एसा कहा कि गुद्ध चिद् पमात्र वस्तु नो है हो ॥३०॥ डिल्ल- कहे विचक्षण पुरुष सदा हूं एक हों। अपनेरससं भरयो प्रापकी टेक हों। मोहकर्म मम नाहि नाहि भ्रमकूप है। शुद्ध चेतन सिंधु हमारो रूप है ॥३०॥ मालिनी इति सति सह सर्वरन्यभावविवेके स्वयमयमुपयोगो बिभ्रदात्मानमेकं ।
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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