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________________ जीव-अधिकार ३१ कपड़ा ना मेरा है और मेरा हो है। ऐसा सुन कर उसने देखा, पहचाना और जाना कि हमारा ता निशान मिला नही । इसलिए निश्चय ही यह कपड़ा हमारा नही. पराया है। ऐसी प्रतीति होने पर व्याग होना घटित होता है । कपड़ा अभी पहना हुआ ही है फिर भी उसका त्याग घटिन होता है क्योंकि उसमें मालिकपना छूट गया। इसी प्रकार जोव अनादि काल में मिथ्यादृष्टि है जो कर्म-मयोग जनित अवस्था है । शरीर दुख-सुख-गग-द्वेषादि विभाव पयाय को अपना हो जानता है और उन्ही रूप प्रवर्तता है। हेय उपादेय नही जानना है। इसी प्रकार अनन्तकाल भ्रमता हुआ जब परमगुरु का उसको ऐसा उपदेश मिले कि हे जीव ! यह सब जो शरीर सुख-दुख रागद्वेष-मोह को तु अपना जान रहा है और जिनमें तु रत हुआ है वे तो सब ही ने नहीं हैं, अनादि कर्म- संयोग को उपाधि है तो ऐसा उपदेश बराबर सुनते-सुनते जीव को विचार उपजता है कि जीव का लक्षण तो शुद्ध चिप इसलिए इतनी उपाधियां तो जीव की नहीं और उसका थोडा समोर शेष रह जाना है। जिस समय ऐसा निश्चय हुआ कि ये सब कर्म- संयोग की उपाधि हैं, उसी समय मकल विभाव-भाव का त्याग है। शरीर सुख-दुख जैसा था अभी वैसा ही है. परन्तु परिणामों में त्याग है । जिसमें मालिकपना छटा उसका नाम अनुभव है, उसका नाम सम्यक्त्व है । ऐसे दृष्टान्त की तरह किसी जीव की दृष्टि उपजी अर्थात् जिसको शुद्ध चिप का अनुभव हुआ, उसके अनादिकाल से चले आए कर्म-पर्याय से reaपने के सरकार नहीं रहे। वह त प परिणमन करता है । भावार्थ - यदि कोई कहे कि शरीर-सुख-दुःख-राग-द्वप-मोह इन सब की न्यागवद्धि कुछ और है- कारणरूप है और शुद्ध चित्र पमात्र का अनुभव कुछ और है कार्यरूप है तो उसको इस प्रकार उत्तर देते हैं: राग-द्वेष-मोहशरीर सुख-दुःखादि विभाव परिणमन जीव करता था। जिस समय ऐसा अशुद्ध परिणमन संस्कार छूटा उसी समय उसका शुद्ध चिद्र पमात्र का अनुभव है। विवरण - शुद्ध चेतना मात्र का स्वाद आए बिना अशुद्ध भाव परिणाम छूटना नहीं और अशुद्ध संस्कार छूटं विना शुद्ध स्वरूप का अनुभव होता नहीं। इससे जो कुछ है, मां, एक ही काल, एक ही वस्तु, एक ही ज्ञान, एक ही स्वाद है । जिसको शुद्ध अनुभव हुआ है वह जीव कैसा है यह आगे कहते हैं ||२६|| मया - जैसे कोउ जन गयो धोबी के मदन तिनि, पहरू यो परायो वस्त्र मेरो मानि रह्यो है ।
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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