SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 53
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जीव-अधिकार उपगम मे तथा बहिरंग में गुरु के द्वारा मूत्र का उपदेग पाकर अनुभव होता है। इस तरह कोई निकट भव्य समारो जीव गद्धजीववस्तु का आग्वाद पाता है जिसका म्व-स्वरूप और परम्वार को अलग-अलग करने वाला विज्ञान अर्थात् जाननपना मूल है। प्रग्न वह अनुभव पाना कंमा है : उनर - निविकार है। गणपर्याय में निविकार गकल द्रव्य जिस में, दर्पण की तरह गगर्देष में रहित निरन्तर प्रतिबिम्बम्प गभित है, ऐसा वह जीव है। भावार्थ - जिम जीव को गद्ध स्वरूप का अनुभव होता है उसके ज्ञान में मकल पदार्थ उद्दीप्त होते है। भाव अर्थात् गणपर्यायों का जिसको निर्विकार कप अनभव है उमी के ज्ञान में मकल पदार्थ गभित है ॥२१॥ सर्वया के प्रपनो पद प्राप संभारत, के गुरु के मुख को सुनि बानी। • मेव विज्ञान जग्यो जिन्ह के, प्रगटो मुविवेक कला रजधानी ॥ भाव अनन्त भये प्रतिविम्बित, जीवन मोक्ष दशा ठहरानी। ते नर दर्पण ज्यों अविकार, रहें थिररूप सदा मुख दानी ॥२१॥ मालिनी छन्द त्यजतु जगदिदानों मोहमाजन्मलीढं रमयतु रसिकानां रोचनं ज्ञानमुद्यत् । इह कयमपि नात्माऽनात्मना साकमेकाम् किल कलयति काले क्वापि तादात्म्यवृत्तिम् ॥२२॥ हे जगत की जीव गशि । अनादि काल में लगा हुआ मोह अर्थात मिथ्यान्व परिणाम मर्वथा तत्काल छोड़ी। भावार्थ --गगरादि पगद्रव्य से जीव की एकव वद्धि हो रही है। उसका मुटम काल मात्र के लिए भी आदर करना योग्य नहीं। शुद्ध चैतन्यवस्न म्बानभव ने प्रत्यक्षम्प आम्वादी। वह शद्ध चैतन्य वस्तु अर्थात् जान गद स्वम्प का अनुभव करनेवाले सम्यग्दृष्टी जीवों को अन्यन्त मुखकारी है तथा त्रिकाल हो प्रकाशरूप है। प्रश्न --रोमा करने में कार्य मिद्धि कम होगी? उत्तर-मोह का त्याग तथा ज्ञान वस्तु का अनुभव बारम्बार अभ्यास
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy