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________________ समयमार कला टीका मालिनी छन्द कथमपि ममुपात्त त्रित्वमप्येकताया, प्रपतितमिदमात्मज्योतिरुद्गच्छदच्छम् । मतनमनुमवामोऽनन्तचैतन्य चिह्न, न खलु न ग्वलु यस्मादन्यथा माध्यसिद्धिः ॥२०॥ जो आत्म ज्योति प्रकाशरूप परिणमन करनी है, निर्मल है, जिसका अनन्तज्ञान लक्षण है. उस चैतन्य प्रकाशमय आत्माज्योति का निरन्तर प्रत्यक्ष रूप आग्वादन करने से ही माध्यसिद्धि अर्थात् स्वरूप की प्राप्ति है, अन्य प्रकार से नहीं है, नहीं है. ऐसा निश्चय है । व्यवहार दृष्टि से उस आत्मज्योति का भेदरूप ग्रहण है परन्तु शुद्ध दृष्टि से वह ( भेद) घटित नहीं होता अर्थात आत्मज्योति भेदरूप नहीं है ॥२०॥ पद 8P ज्ञान, मोहत मुलक्षण अनन्त ज्योति लह नहीं है। विकासवंत त्रिविधटप व्यवहार में तथापि, एकता न तर्ज यों नियत अंग कही है ।। सो हैं जो कमी हुजुर्गान के सदीव ताके, ध्यान करवेक मेरो मनसा उगी है। जाते अविचल रिद्धि होत, और भांति सिद्धि नाहि, नाहि नाहि यामें धोखा नाहि सही है ||२०|| मालिनी छन्द कथमपि हि लभन्ते भेदविज्ञानमूलामचलितमनुभूति ये स्वतो वान्यतो वा प्रतिफलन निमग्नानन्तभावस्वभाव सर्वया - जाके विमल यद्यपि कुरवदविकाराः संततं स्युस्त एव २१ ।। २१ । अनन्त समार के भ्रमण में जब किसी प्रकार कालन्नब्धि प्राप्त हो तब सम्यक्त्व उपजता है, तब अनुभव होता है। या तो मिध्यात्व कर्म के उपशम से स्वयं ही, बिना उपदेश के अनुभव होता है या अंतरंग में मिथ्यात्व कर्म के
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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