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________________ जीव-अधिकार सर्वया - कोऊ बुद्धिवंत नर निरले शरीर घर मेद ज्ञान दृष्टि से विचारं वस्तु वासतो | प्रतीत अनागत वर्तमान मोहरस, भीग्यो चिदानन्द लखे बंध में विलासतो ॥ बंधको विडारि महा मोह को स्वभाव डारि, प्रातम को ध्यान करे देले परमागम तो । करम कलंक पंक रहित प्रगटरूप, ree marधित विलोकं देव सासतो ॥ १२ ॥ वस तातलका श्रात्मानुभूतिरिति शुद्धनयात्मिका या ज्ञानानुभूतिरियमेव किलेति बुध्वा । श्रात्मानमात्मनि निवेश्य सुनिः प्रकम्पमेकोsस्ति नित्यमय बोधघनः समन्तात् ॥१३॥ १५ चंतन द्रव्य ( निश्चय नय से ) अशुद्ध परिणमन से रहित, सद्यकाल, सर्वांग में, ज्ञानगुण के समूह रूप विद्यमान है अर्थात् ज्ञानपुंज है। ( व्यवहारनय से आत्मा किस प्रकार शुद्ध होता ? इस प्रश्न का उत्तर है कि आत्मा स्वयं ही स्वयं में प्रविष्ट होकर शुद्ध होता है । भावार्थ आत्मानुभव परद्रव्य की सहायता से रहित है। इससे स्वयं से ही आत्मा स्वयं ही शुद्ध होता है । प्रश्न- यहाँ पर तो ऐसा कहा कि आत्मानुभव करने से आत्मा शुद्ध होता है, और कहीं पर कहा कि ज्ञानगुणमात्र अनुभव करने मे आत्माशुद्ध होता है । सो इन दोनों बातों में विशेष अन्तर पड़ गया । उत्तर- अन्तर तो कुछ नहीं है। शुद्ध वस्तु स्वभाव है जिसका ( शुद्ध नय से) ऐसी जो आत्मा है उसकी स्वानुभूति अर्थात् प्रत्यक्ष रूप से आस्वाद ही ज्ञानानुभूति है। दूसरे शब्दों में निरुपाधिरूप जीवद्रव्य जैसा है उसका वैसा ही प्रत्यक्ष आस्वाद आवे उसी का नाम शुद्धात्मानुभव कहाना है । उसी को ज्ञानानुभव कहा है। नामभेद है वस्तुभेद नहीं। ऐसा जानो कि आत्मानुभव मोक्षमार्ग है। तब और भी यह संशय होता है कि फिर द्वादशांग ज्ञान को क्यों अपूर्व लब्धि कहा इसका समाधान- द्वादशांग ज्ञान भी विकल्प है । उसमें ( द्वादशांग में) ऐसा कहा है कि शुद्धात्मानुभूति मोक्षमार्ग
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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