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________________ ममयमार कलश टोका येमा प्रगट गुपत नृम खेलन, जमे भिन्न होय अरु तेल ॥११॥ शार्दूल विक्रीडित छन्द मूनं मान्तमभूतमेव रमसा निमिद्य बन्धं सुधीयंद्यन्तः किलकोऽप्यहो कलयति व्याहत्य मोहं हठात् । प्रात्मात्मानुभवंकगम्यमहिमा व्यक्तोऽयमास्ते ध्रुवं नित्यं कर्मकलङ्कपविकलो देवः स्वयं शाश्वतः ॥१२॥ त्रिकालगाचर अगुद्धपन की कालिमा और कीचड़ में सर्वथा भिन्न यपि चतनालक्षण जीव ग्व-ग्वभावरूप विद्यमान है नथापि चारों गतियों में भ्रमण में दहित है । परन्तु द्रव्यम्प में वह नीन लोक में पूज्य है । चेतनवस्तु अद्वितीय महिमा अर्थात् बदाई. प्रत्यक्षम्प म आम्वाद गोचर है। भावार्थ जीव का जम एक जान गण है वमे एक अतीन्द्रिय मुख गण है। वह मखगण ममागवस्था में अगलपना हान में प्रगटम्प में आस्वादरूप नहीं, अगदपना जाने पर प्रगट होना है। वह मृख अतीन्द्रिय परमात्मा को है। उस सम्व का बनाने के लिए काई दृष्टान्न चाग गनिया में नहीं। इसलिए नागं गतियों दुःखरूप है । इमलिए ऐमा कहा है कि उसका जो शुद्ध स्वरूप अनुभव करे वही जीव परमात्मा है। जीव का मुख को जानना योग्य है। इसमे शुद्ध स्वरूप अनुभव करना अतीन्द्रिय मुख है, यही सच्चा भाव है। प्रश्न-किम कारण से जीव शुद्ध होता है ? उतर-- शुद्ध का अनुभव करनेमे शुद्ध होता है। शद्ध है बद्धि जिमकी ऐमा जो जीव द्रव्य पिडरूप मित्थ्यात्व कर्म के उदय को मेटकर अथवा मल में ही सत्ता को मेटकर तथा बलपूर्वक मिथ्यात्वरूप ( जीव का) परिणाम मूल से उखाड़ कर शुद्ध स्वरूप का निरन्तर अनुभवन कर वह निश्चय में अतीतकाल, वर्तमान काल तथा आगामी काल संबंधी बध अथवा मोह से मुक्त होता है । भावार्थ- ..जो त्रिकाल संस्काररूप शरीरादि में एकन्वद्धि है उसको मिटाकर जो जीव शुद्ध जीव का अनुभवन करे मो जीव निश्चय में कर्म से मुक्त होता है ॥१२॥
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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