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________________ जीव-अधिकार सबंधा-जोग परे रहे योगसं भिन्न, धनन्तगुलातन केवलज्ञानी । तासु हवं ग्रह सों निकली, सरिता समद्ध भूत सिधुसमानी ॥ बाते झमन्त नयातम लक्षरण, सत्य सरूप सिद्धान्त बसानी । बुद्ध लचे दुरबुद्ध लये मह, सदा जनमाहिं जगे जिनवाणी ॥२॥ मालिनी छन्द परिपरिगतिहेतोमोहनाम्नोऽनुभाबादविरत मनुभाव्यव्याप्तिकल्मावितायाः । मम परमविशुद्धिः शुद्धचिन्मात्रमूर्तमंत्रतुसमयसारव्याख्ययंवानुभूतेः ॥ ३ ॥ अर्थ - शास्त्रकर्ता अमृतचन्द्र सूरि कामना करते हैं कि मुझको जो सर्वोत्कृष्ट विशुद्धि या निर्मलता है और जो शुद्ध स्वरूप में ही उपलब्ध है, वह प्राप्त हो । समयसार या शुद्ध जीव की व्याख्या परमार्थरूप वैराग्योत्पादक है । रामायण-महाभारत की भांति रागवर्द्धक नहीं है। अतः समयसार का उपदेश करते हुए मुझे वैराग्यवृद्धि होकर शुद्ध स्वरूप की प्राप्ति हो । द्रव्याधिक नय से मैं स्वानुभूतियुक्त, अतीन्द्रिय सुख स्वरूप, रागादि उपाधि से रहित और वेतनमात्र स्वभाव वाला हूं। दूसरे पक्ष से, अर्थात् पर्यायार्थिक नय से मैं अनादिकाल से निरन्तर विषयकषायादि से पूर्ण, अशुद्ध चेतनरूप, विभाव परिणमन कर रहा हूं। कलंकपने से युक्त हूं। पर्य्यायार्थिक नय से जिस अशुद्धता से यह जीव अनादिकाल से परिणमन कर रहा है, उसके नाश होने पर ही वह ज्ञानस्वरूप या सुखस्वरूप को प्राप्त होगा। प्रश्न उठता है कि जब जीव वस्तु अनादिकालसे अशुद्ध परिणमन कर रही है तो उसमें निमित्त क्या है ? उत्तर - आठों कर्मों में जो मोह नाम का कर्म है उसका उदय या विपाक अवस्था जीव के अशुद्ध परिणमन में निमित्त कारण है; यद्यपि व्याप्यव्यापकरूप से तो जीवद्रव्य स्वयं ही परिणमन करता है। जैसे कोई धतूरा पीकर बोराता है तो धतूरे का सेवन उसके बौराने में निमित्त मात्र है । बीराता तो वह स्वयं ही है। जीव का जो परपरिणति परिणाम अथवा अशुद्ध परिणाम है उसके निमित्त का रस लेकर मोहकर्म बंधता है और फिर उदय में आकर स्वयं अशुद्ध परिणमन में निमित्त बनता है ॥३॥ छप्पय बन्द – हूं निश्चय तिहुंकाल, शुद्ध चेतनमय मूरति, पर-पररगति संयोग, भई जड़ता बिस्कूरति ।
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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