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________________ साध्य - साधक अधिक र २३७ कोई सम्यग्दृष्टि जीव द्रव्यरूप तथा पर्यायरूप वस्तु के अनुभव का विपरीतपने से रहित वस्तु जिस प्रकार है उस प्रकार से अंगीकार तथा समस्त रागादि अशुद्ध परिणति का त्याग'- इन दोनों की सहायता से जीव के शुद्ध स्वरूप को निरन्तर अखण्ड धाराप्रवाह रूप अनुभवता है तथा अपने शुद्ध स्वरूप के अनुभव में ही सर्वकाल एकाग्ररूप से तल्लीन है। शुद्ध जीव के स्वरूप का अनुभव मोक्षमार्ग है। शुद्ध स्वरूप के अनुभव बिना जो कोई क्रिया है वह सर्व मोक्षमार्ग से शून्य है । रागादि अशुद्ध परिणाम के त्याग बिना जो कोई शुद्ध स्वरूप का अनुभव होना कहता है वह ममस्त झूठा है अनुभव नहीं है। कुछ ऐसा ही अनुभव का भ्रम है कारण कि शुद्ध स्वरूप का अनुभव रागादि परिणाम को मेट कर होता है। ऐसा है जो ज्ञाननय तथा त्रियानय का परस्पर अत्यन्त मित्रपना उसका विवरण शुद्ध स्वरूप का अनुभव रागादि अशुद्ध परिणति को मेट कर होता है और रागादि अशुद्ध परिणति का विनाश शुद्ध स्वरूप के अनुभव को लिए हुए है। सम्यग्दृष्टि जीव इन दोनों की मंत्री का पात्र हुआ है अर्थात् ज्ञाननय तथा क्रियानय का एक स्थानक है । भावार्थ- दोनों नयों के अर्थ से विराजमान है ||४|| मया-जे जीव दरव रूप तथा परयाय रूप, दोउ नं प्रमाण वस्तु शुद्धता गहत हैं । जे अशुद्ध भावनि के त्यागी भये सरवया, विषं मों विमुख हूं विरागता बहन है । जे जे ग्राह्य भाव त्याज्य भाव दोउ भावनि कों, अनुभौ प्रभ्यास विषं एकता करत है। तेई ज्ञानक्रिया के प्रराधक महज मोक्ष, मारग के साधक प्रवाधक महत हैं ॥४॥ यसन्ततलिका बिपिडडिमविलासिविकासहास: शुद्धप्रकाशमरनिर्भर सुप्रभातः । प्रानंदसुस्थितसदास्ख लिर्तकरूप स्तस्यैव चायमुदयत्यचलाचिरात्मा ||५|| पूर्वोक्त जीव को अवश्य ही सकल कर्म का विनाश कर जीव पदार्थ प्रगट होता है । अनन्त चतुष्टयरूप होता है। वह जीवपदार्थ सर्वकाल एकरूप
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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