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________________ समयसार कलश टीका स्वरमविसरपूर्ण ज्ञान विस्फूर्तिमात्रानवलु ममयमारादुन किंचिदसि ॥५०॥ अब इतना ही कहना है कि शद्ध जीव का अनुभव ही अकेला मोक्ष का कारण है अतः नाना प्रकार के अभिप्रायों को मेटकर उसी एक को नित्य अनुभवी । शुद्ध जीव स्वरूप का अनुभव जिस प्रकार सर्वथा मोक्ष का मार्ग है उसी प्रकार कोई भी द्रव्य क्रिया या सिद्धान का पढ़ना-लिखना इत्यादि अन्य समग्न क्रिया सर्वथा मोक्ष का मार्ग नहीं है। केवल ज्ञान का प्रगटपना बेतना प्रवाह है और यही मोक्ष मार्ग है। इससे ज्यादा कोई मोक्षमार्ग कहे तो वह हिमा है उसे वर्जित करने है कि बहुत बोलने से बम करो, बम करो। इस प्रकार का बहुत बोलना झूठ मे स्ट चिन कल्लोल माला अर्थात मन के उन विकल्पों को उठाता है जो शक्ति के भेद से अनन्न है ।। ५० ।। ܕ: मया प्राचरज कहें जिन वचन को विसतार, अगम अपार है कहेंगे हम कितनो । बहुत बोलवे मां न ममब चुप्प भली, बोलिए सुवचन प्रयोजन है जितनी " नानाम्प जन्नप मां नाना विकलप उठे. नातं जेनो कारिज कथन भन्नो तितनो । शुद्ध परमातमा को प्रनुभो प्रभ्याम कीजे, यहे मोक्ष पंथ परमात्य है इतनो ।। दोहा - शुद्धातम अनुभी क्रिया, शुद्धज्ञान हग दौर । मुक्ति पंथ माधन यहै, बागजाल सब औौर ॥५०॥ छन्द इदमेकं जगच्चक्षुरक्षयं याति पूर्णताम् । विज्ञानघनमानन्दमयमध्यक्षतां नयत् ॥ ५१ ॥ इस प्रकार शुद्ध ज्ञान प्रकाश पूर्ण हुआ । भावार्थ -- मत्रं विशुद्ध ज्ञान अधिकार जो आरम्भ किया था मां पूरा हुआ। शुद्ध ज्ञान जो ज्ञानमात्र का समूह आत्मद्रव्य है उसका प्रत्यक्ष रूप से अनुभव करता है, वह निविकल्प है. समस्त शेय वस्तु को जानना है और शाश्वत है ।। ५१ ।।
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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