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________________ १९८ ममयसार कलश टोका उपजाति जानम्य मंचेतनयंव नित्यं प्रकाशते मानमतीव शुलं । प्रमानसंचेतनया तु धावन बोधस्य शुद्धि निरुणादिषः ॥३१॥ अब जान बनना ओर अज्ञान चंतना का फल कहते है। रागष मोह प अगद परिणति के बिना शुद्ध जीव स्वरूप के निरन्तर अनुभव रूप जान की परिणति में मथा निगवरण केवलज्ञान प्रगट होता है। भावायं कारण मदन ही कार्य होता है इसलिए ऐसा घटित होना कि गद ज्ञान के अनुभव ग गद्ध ज्ञान की प्राप्ति होती है। दूसरी भीर निम्नाय ग, गगद्वेष मोह प नथा मुखदुःखादि कप जीव की अशुख परिणानन पर जानावरणादि कमों का अवश्य बन्ध होता हआ फेवल जान की गदना को रोकता है। भावार्थ--जान चनना मोक्ष का मार्ग है तथा अज्ञान गंतना ममार का मार्ग है ॥३१॥ दोहा-नायकभाव जहां तहां, शुट परण की चाल । माने मान विराग मिलि, शिव माघे ममकाल ॥ या अंधके कंध पर बड़े पंगु नर कोय। याके हग वाके चरण, होय पषिक मिलिरोय॥ जहाँ जान क्रिया मिले, तहाँ मोम मग सोय। वह जाने पर को मरम, वह पद में पिर होय।। मान जीवको सजगता, कर्म जीव की मुल। माम मोन कर है. कर्म जगत को मृल।। ज्ञान वेतनाके जगे, प्रगटे केबल राम। कर्म चेतना में बसे, कर्मबंध परिणाम ॥३१॥ प्रार्या कृतकारितानुमन स्त्रिकालविषयं मनोवयनकायः परिहत्य कर्म सर्व परमं नंकमवलम्बे ॥३२॥ मम्यक् दष्टि जीव जितने भी दम्य कर्म, भाव कर्म, नो कर्म है उन सबका स्वामित्व छोड़कर कर्म चनना और कर्म फल चेतना रूप को असन परिणति है उनको मिटाने का अभ्यास करता है कि मैं खुद पैतन्य रूप गोष
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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