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________________ शुद्धात्म-द्रव्य अधिकार १६१ जीव का ज्ञान समस्त ज्ञेय को जानता है तो भी अपने ही स्वरूप है ॥२३॥ सक्ष्या-जैसे चन्द्रकिरण प्रगट भूमि स्वेत करे, भूमिसी न होत सदा ज्योतिसी रहत है। तैसे ज्ञान सकति प्रकासे हेय उपादेय, याकार दोसे पं न शेय को गहत है ॥ शुद्ध वस्तु शुद्ध परयायरूप परिणमे सत्ता परमारण मोहि डाहे न डहत है । सोतो प्रोररूपकबहू न होय. सरबधा, निश्चय प्रनादि जिनवारिण यों कहते है ।। २३ ।। मंदाक्रांता रागद्वेषद्वयमुवधते तावदेतन्न यावत् ज्ञानं ज्ञानं भवति न पुनर्बोध्यतां याति बोध्यं । ज्ञानं ज्ञानं भवत तदिदं व्यक्कृताज्ञान भावं भावाभावो भवति तिरयन् येन पूर्णस्वभावः ॥ २४ ॥ इष्ट की अभिलाषा और अनिष्ट में उद्वेग इन दोनों जाति के अशुद्ध परिणाम है ये तब तक होते हैं जब तक जीव द्रव्य अपने शुद्ध स्वरूप के अनुभव रूप में परिणमन नहीं करता है । भावार्थ - जिनने काल तक जीव मिथ्यादृष्टि है उतने काल तक उसका राग-द्वेष रूप अशुद्ध परिणमन नहीं मिटना । ज्ञान होने पर उसकी ज्ञानावरणादि कर्म अथवा रागादि अशुद्ध परिणामों में ज्ञेय मात्र बुद्धि शेष रह जाती है। भावार्थ- ऐसी स्थिति में सम्यग्दृष्टि जीव के लिए जानावरणादि कर्म जानने मात्र का विषय रह जाते हैं कोई जैसा तैसा कर्म के उदय का कार्य करने की उनकी सामर्थ्य नहीं रह जाती हैं। इसलिए जीव वस्तु शुद्ध परिणति रूप होकर शुद्ध स्वरूप का अनुभव करने में समर्थ होओ। ज्ञान शुद्ध ज्ञान के अनुभव के द्वारा मिध्यात्वरूप परिणामों को दूर करता है और जैसा द्रव्य का अनंत चतुष्टय है वैसा प्रगट होता है। भावार्थ- स्वभाव मे मुक्ति की प्राप्ति होती है। चनुर्गति सम्बन्धी उत्पाद-व्यय को सर्वथा दूर करके जीव का स्वरूप प्रगट होता है ||२४||
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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