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________________ समयसार कलश टोका सर्वया--कनिको करता है भोगान को भोगता है, जाको प्रभुता में ऐसो कथन अहित है। जामें एक इंद्रियादि पंचषा कथन नाहि, सदा निरदोष बंष मोभमों रहित है ।। जानको ममूह ज्ञानगम्य है स्वभाव जाको, लोक व्यापि लोकातीत लोकमें महित है। शुद्ध वंश शुद्ध चेतनाके रस अंशभरयो, ऐमो हंस परम पुनीतता सहित है। दोहा--जो निश्च निग्मल सदा, प्रादि मध्य प्रह अंत ।। सो चिप बनारसी, जगत माहि जयवंत ॥१॥ श्लोक कर्तृत्वं । स्वभावोऽस्य चितो वेदयितृत्ववत् । प्रजानादेव कर्ताऽयं तदभावादकारकः ॥२॥ चैतन्य स्वरूप जीव कही ज्ञानावग्णादि कर्म को करे अथवा रागादि परिणाम को करें एसा तो जीव का सहज गुण नहीं है। और जीव कम का भोक्ता भी नहीं है। भावार्थ-यदि जीव द्रव्य कर्म का भोक्ता हो तो कर्ता भी होगा। लेकिन भोक्ता तो है नहीं तो फिर कर्ता भी नहीं है। यही जीव रागादि अशुद्ध परिणाम को करता है यह फिर कैसे हुआ? कमजनित भावों में आत्मबुद्धिरूप जो मिथ्यात्व विभाव परिणाम है उसकी वजह से जीव कर्ता है । भावार्थ-..जीववस्तू रागादि विभाव परिणाम का कर्ता है-ऐसा जीव का स्वभाव गुण नही है परन्तु यह उसकी अशुद्ध रूप विभाव परिणति है। उस मिथ्यात्व राग-द्वेष रूप विभाव परिणति के मिटने पर जीव सर्वथा अकर्ता होता है ॥२॥ चौपाई-जीव करम करता नहि ऐते । रस भोक्ता स्वभाव नहिं तेते ॥ मियामतिसों करता होई । गए प्रज्ञान प्रकरता सोई ॥२॥ शिखरिणी प्रकर्ता जोवोऽयं स्थित इति विशुद्धः स्वरसतः स्फुरविज्योतिमिरितभुवनामोगमवनः ।
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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