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________________ दशम अध्याय शुद्धात्म-द्रव्य अधिकार मंदाक्रांता नीत्वा सम्यक् प्रलयमखिलान्कत भोक्त्रादिभावान दूरीभूतः प्रतिपदमयं बन्धमोक्षप्रक्लुप्तेः । शुद्धः शुद्धः स्वरसविसरापूर्णपुण्याचलाधिष्टोत्कीर्णप्रकटमहिमा स्फूर्जति ज्ञानपुंजः ॥१॥ अब विद्यमान शुद्ध जीव द्रव्य प्रगट होता है। भावार्थ-यहां में लेकर जैसा जीव का गद्ध स्वरूप है वैसा कहत है। जिसका स्वभाव स्वानुभव गोचर महिमा में युक्त है वह ज्ञानपुञ्ज (जीव) सर्वकाल एक रूप है एवं रद्ध ज्ञान चतना के अनन्त अंश भेदों से सम्पूर्ण है। वह निरावरण ज्योति प्रकाश स्वरूप है। अति ही विशुद्ध है। बन्ध अर्थात ज्ञानावरणादि कर्म के पिंड में जीव एक क्षेत्रावगाह है अथवा मोक्ष अर्थात् सकल कर्मों का नाश होने पर जीव के स्वरूप का प्रगटपना हैयह दोनों विकल्प एकन्द्रिय में पंचन्द्रिय नक की पर्याय में पाए जाने वाले जीव द्रव्य मे अति ही भिन्न हैं। भावार्थ-...एकन्द्रिय मे पंचेद्रिय आदि की मर्यादा के विचार से जहां तहां द्रव्य स्वरूप के विचार की अपेक्षा इस प्रकार बंधा है अथवा इस प्रकार मुक्त है--जीव द्रव्य मे विकल्पों से रहित है। द्रव्य का स्वरूप तो जैसा है वैसा ही है। जो अनंत जीव हैं वे कर्ता है ऐसा विकल्प, भोक्ता हैं ऐसा विकल्प इत्यादि, विकल्पों के अनंत भेदों को मूल से विनाश करके जीव शुद्ध स्वरूप को प्राप्त होता है-नोसा कहा है ॥१॥ दोहा-पति भी नाटक प्रन्य में, कहीं मोख अधिकार । प्रब बरनों संक्षेप सों, सर्व विशुखी द्वार॥
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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