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________________ नवम अध्याय मोम-अधिकार शिखरिणी द्विधाकृत्य प्रज्ञाक्रकचदलनाद्वन्धपुरुषो नयन्मोक्ष साक्षात्पुरुषमुपलम्भकनियतं । इदानीमुन्मज्जसहजपरमानन्दसरसं परं पूर्ण ज्ञानं कृतसकलकृत्यं विजयते ॥१॥ अब यहाँ से ममस्त आवरण का विनाश करती हुई शुद्ध (चैतन्य ) वस्तु प्रकाशमान होती है, जो आगामी अनन्तकाल नक इसी मप रहती है, अन्यथा नहीं होती है। उस शद्ध ज्ञान ने करन योग्य समस्त कर्मों का विनाश किया है और अनादिकाल में वह छिपा हुआ था....अब प्रकट हुआ है, सहज परमानन्दरूप द्रव्य के स्व-स्वभाव में परिणमन कर रहा है तथा अनाकुलता लक्षणयुक्त अतीन्द्रिय मुख में संयुक्त है। भावार्थ-मोक्ष का फल अतीन्द्रिय मुख है । मकल कर्म का विनाश होने से शद्धत्व अवस्था में परिणमन करके ज्ञान प्रकट होता है। भावार्थ---- यहाँ मे मकल कर्मों के क्षय लक्षण वाले मोक्ष का म्वरूप कहा जाता है। वह शुद्ध ज्ञान उत्कृष्ट है और एक निश्चय स्वभाव को प्राप्त है एवं वह भेदमान प्रतीति के द्वारा उत्पन्न होता है। प्रश्न- शुद्ध जीव द्रव्य को ऐमी भेदज्ञान प्रतीति कैसे होती है कि द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म की उपाधि हैं तथा मभी बंध हेय हैं और शुद्ध जीव उपादेय है ? उत्तर-वह तब होती है जब आगे की तरह भंदज्ञान के द्वारा ऐसा निरन्तर अभ्यास करे कि शुद्ध ज्ञान मात्र जीव द्रव्य है तथा रागादि उपाधियां बंध अशुद्ध वस्तु भिन्न हैं ।
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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