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________________ १५४ समयसार कलश टोका याही प्रनकम पररूप संबंध स्थागि, प्रापमाहि प्रापनो स्वभाव गहि मानतो। माधि शिवचाल निरबंध होत तिहंकाल, केवल विलोक पाह लोकालोक जानतो ॥१५॥ मंदाकांता रागादीनामुदयमदयं दारयत्कारणानां कार्य बन्धं विविधमधुना सच एव प्रणुच । ज्ञानज्योतिः अपिततिमिरं साधु सन्नसमेतत् तद्वद्वत्प्रसरमपरः कोऽपि नास्यावृणोति ॥१६॥ शुद्ध चैतन्य वस्तु म्वानुभवगोचर है । अपने बल पराक्रम से ही (शुद्ध) प्रगट हुई है। शुद्ध ज्ञान का लोक तथा अलोक सम्बन्धी ममस्त श्रेय वस्तुबों को जानने का विस्तार है उसको कोई भी अन्य मग द्रव्य नहीं मिटा सकता। भावार्थ- जीव का स्वभाव केवलज्ञान केवलदर्शन है परन्तु वह नानावरणादि कर्मों के बंध में आच्छादिन है। वह आवरण शुद्ध परिणामों से मिटता है और वस्तू स्वरूप प्रकट होता है। जिसने मानावरण, दर्शनावरण कों का विनाश किया है ऐसा जीव मब तरह के उपद्रवा में रहित है। वह जीव जो राग-द्वेष-मोहरूप अशुद्ध परिणाम बन्ध के कारण हैं उनको निर्दयता मे उखाड़ता हुआ ऐसा होता है। रागादि अशुद्ध परिणामों के होने से जो पुद्गल कर्मों का धारा प्रवाहरूप बंध होता है वह जिस समय मिटते हैं उस समय असंख्यात लोक मात्र जानावरण, दर्शनावरण इत्यादि कर्म भी मिट जाते हैं ॥१६॥ संबंया - जैसे कोउ मनुष्य प्रजान महा बलवान, खोदि मूल वृक्ष को उखार गहि बाहों। तसे मतिमान व्यकर्म भावकर्म त्यागि, ह रहे प्रतीत मति मानकी दशाहों ।। पाहि क्रिया अनुसार मिटं माह अंधकार, जग जोति केवल प्रधान सविताह सों। के न सकतिसों सुकं न पुद्गल माहि. दुके मोक्ष पलको, रुके न फिरि काहणे ॥१६॥ ॥ इति अष्टम अध्यायः ॥
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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