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________________ । १४) उभरते है और फिर चेतना उम्प में परिमन करती है अतः मन जब तक है तब तक दुःन है, मन जब तक है तब तक नरक है, अब मन का आश्रय छोड़ो, मन की खिड़की से हटो-यही ध्यान का अर्थ है । मन से हटे कि निविकार हए । ध्यान में बैठो और विचारों को देखते जाओ, देखते जाओ, चाह शुभ विचार हो या अशुभ -- उसका कोई भी विरोध न करो कि ऐसा क्यों उ.1 और मा क्यों नहीं उठा, तुम्हारा काम है मात्र जानना, उस जाननपने पर जोर देते जाओ, तुम उन विचारों को न तो करने वाले हो, न रोकने वाले, तुम तो उन्हें मात्र जानने वाले हो, अपना काम किए जाओ। तुम मन नहीं, तुम देह नहीं, जरा भीतर सरक जाओ और देखते रहो। मन का कहो-'जहाँ जाना हो जा, जो विचार उठाने हैं उठा, हम तो बैठकर तेरे को देखेंगे।' जमे ही यह कह कर देखना चाल किया तुम पाओगे कि मन सरकता ही नहीं। तुम करके देखना, आज ही करके देखना, यह मन अब अन्तिम विकल्प उठाएगा कि छोड़ न, किसमें लग गया तू, पहले ही ठीक था, सब बातें मुठो हैं। पर तुम्हें इस मन से ऊपर उठना है। अगर तुमने धैर्य रखा और देखते ही गए तो तुम पाओगे कि कभी-कभी कुछ होने लगा, बरसात की फुहार का मोका आया, एक क्षण के लिए शून्य हो जाता है, निविचार हो जाता है। अगर ऐसा हुआ तो चावी मिल गई कि निर्विचार हा जा सकता है और जो एक क्षण के लिए हो सकता है वह एक मिनट के लिए, एक घण्टे के लिए, एक दिन के लिए व हमेशा के लए क्यों नहीं ? पहले बंद-बंद बरसेगा फिर एक दिन तूफान आ जाएगा, बाढ़ आ जाएगी। तब क्या होगा ? वह होगा जो आज तक कभी नहीं हुआ था। मालूम होगा कि भीतर कोई जागा हुआ है, बाहर में सोए हुए भी वह जागा मालूम होगा, चलते हुए भी अनचला मालूम देगा, बोलते हुए भी अनबोला दिखाई देगा, बाहर में सारो क्रिया होगो पर उसमें कुछ भी होता मालूम न होगा। जिस क मौजूदगी में तुम शान्त होने लगो, जब चश्मे को तरह मन को उतार कर अलग रखा जाने लगे, जो विचारों से बार-बार हटाकर तुम्हें भीतर पहुंचाने लगे वही साक्षी भाव है। साक्षी को गैर मौजूदगी ही मन है। जब साक्षी सोता है तो मन अपना काम करता है। जहाँ तुम बगे सावधान हए, साक्षी बने वेसे हो पाओगे कि मन गया। तुम्हारा संसार तुम्हारे मन में है, साक्षी हुए, मन गायब हो जाता है। मेटोगे किसको ! जब तुम हो तब वह नहीं और जब वह है तब तुम नहीं। जब तक मन के विचारों में तुम्हें रस आ रहा है,
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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