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________________ । १३) इनके नाश के साथ मेरा नाश हो जाना चाहिए था पर मेरी सत्ता इनके विनष्ट होने पर भी बनी हुई है अतः इन रूप में कैसे हो सकता हूँ। इस प्रकार पहले तो ये विकरप में निश्चित करें कि मैं तो जानने वाला और बाकी सब पर और से निर्णय के बाद अब उस जानने वाले में जहां कि वह है, अपने भीतर - उसमें अपनी सत्ता की अनुभूति करनी है। स्वानुभव के मार्ग का ज्ञान प्रश्न होता है किसी अनभूति कैसे हो? बड़ी कठिनाई आती है। यहीं पर कि जो कुछ भी निशाद में जाना गया है उसे शब्द में कैसे कहें, जो स्वयं निविकल्प रूप है उसे विकल्प में कैसे कहें? पर फिर भी उसकी प्राप्ति के उपाय को कहने का कुछ साहस किया जाता है। हममें मन के विचारों की, श्वास की, वचन की व काय की जो भी त्रिया प्रतिसमय होती जा रही है, चेतना उसकी साक्षीभूत बनी उमे निरन्तर देखती जा रही है पर विचारों आदि को हमने अपना होना समझ लिया है और उस साक्षी को हम पहचानते नहीं अत: आत्म अनुभव के लिए उस साक्षी का अभ्यास ही अपेक्षित है । साक्षी का अर्थ है दर्शन अर्थात् बिना सोचे देखना। साक्षी है निश्चिारदशा। जहाँ मात्र देखना है तो अपने विचारों के या श्वास के या मंत्र वा पूजा का नच्चारण कर उसके साक्षी वन हम अपने चैतन्य में अपनी सत्ता की अनुः भूति कर सकते हैं। मन साक्षी- हमारी जितनी भी आत्म-शक्ति है वह थोड़ी तो शरीर की क्रिया में व्यय हो रही है या कुछ न कुछ बोलने में और अधिक शक्ति मन के द्वारा विचार करने में जा रही है। जो भो शक्ति वाणी या मन में जा रही है उसे ही समेट कर ज्ञाता में, उस जानने वाले में लगानी है। तो एक उपाय है कि मन में कुछ भी भाव चल रहे हैं हम उनको देखना चालू करें। शक्ति वह एक ही है तो जब तक मन के विचार विकल्प चल रहे हैं तब तक ज्ञातापन नहीं और जब वही शक्ति ज्ञाता में लग जाएगी तो विचारों को बंद होना ही पड़ेगा । ये जो विचार हैं ये ही दिन के स्वप्न हैं, ये आँख खोले चलते हैं और रात वाले आँख बंद करने पर चलते हैं, दोनों में कोई अन्तर नहीं। इन विचारों की कोई कीमत नहीं, फालतू है । स्वप्न को जैसे जागकर फालतू समझा जाता है वैसे ही ये विचार बेकार हैं परन्तु इनके होने की कीमत चुकानी पड़ती है। विचार आता है और चला जाता है पर चेतना पर संस्कारों के रूप में अपनी छाप छोड़ जाता है। वे संस्कार भविष्य में फिर
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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