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________________ सप्तम प्रध्याय निर्जरा-प्रधिकार शार्दूलविक्रीडित रागाचालवरोधतो निजधुरान्धृत्वा परः संवरः कर्मागामि समस्तमेव भरतो दूराग्निरुन्धन स्थितः । प्राग्बद्धं तु तदेव दग्धमधुना व्याजम्मते निजरा ज्ञानज्योतिरपावतं न हि यतो रागादिमिर्मछति ॥१॥ अब इसके आगे निजंग अर्थात् पूर्व बन्धं हाए कर्म का अकर्मरूप परिणाम केमे प्रगट होता है, यह कहेंगे। भावार्थ - निरा का स्वरूप जमा है वमा कहते है। सम्यक्त्व होने से पहले मिथ्यात्व ओर गग-द्वप परिणामी के कारण जो ज्ञानावरणादि कर्म बाध थे उनको सवर पूर्वक निजंग जलाती है । निजंग वह है जिसका संवर अग्रसर है। भावार्थ -मवरपूर्वक हाने वाली निजंग ही निजंग है। जो उदय देकर कर्म की निगरा मभी जीवा के होती है वह निजरा नहीं है ।। वह सवर रागादि आस्रव भावा का निगध परके तथा अपने एक संवरस्प पक्ष का ही धारण करता हा नाना प्रकार के जिन जानावरणादि, दर्शनावरणादि कर्मों का अपन माह के वग अखण्ड धारा प्रवाहरूप पुद्गल का आस्रव हो रहा था, उनकी आने नहीं देना। मवर पूर्वक निजंग में इसलिए काम होता है कि उसके होने पर जीव का गुट म्वरूप निगवरण होता है और वह रागादि अगुद परिणामी के द्वाग अपने स्वरूप को छोड़कर रागादिरूप नहीं होता ॥१॥ दोहा-बरणी संवर को दशा, ययायुक्ति परमारण। मुक्ति बितरणो निगरा, मुनो भविक परिबान ।
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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