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________________ ममयमार कलश टीका जीव है वह जीव तत्काल मात्र माक्ष पद को पाता है ॥१२॥ मया- ममझे न मान, कहे करम किए सों मोक्ष, ऐसे जीव विकल मियान की गहल में। मान पभ गहें कहें प्रातमा प्रबन्ध मदा, बरते मुछन्न तेउ ये है चहल में। जथा योग्य करम करें पं ममता न पर, रहें मावधान जान ध्यान की टहल में। तेई भव सागर के ऊपर हं तरें जीव, जिन्हें को निवाम स्यादवाद के महल में ॥१२॥ मन्दाक्रांता भेदोन्मादं भ्रम-रसमरानाटयत्पीतमोहं मूलोन्मूलं सकलमपि तत्कर्म कृत्वा बलेन । हेलोन्मो परमकलया साईमारब्धकेलि मानज्योतिः कलिततमः प्रोजजम्मे भरेण ॥१३॥ निश्चय ही जिसका परिणमन अतीन्द्रिय सुख के प्रवाह से हुआ है और जिसने मिथ्यात्व अंधकार को दूर किया है ऐसा शुद्ध स्वरूप प्रकाश अपनी सम्पूर्ण सामयं से तथा अपने सहज स्वरूप मे (उपरोक्त सम्यक्दृष्टि जीव के) प्रगट होता है। जैसा कहाहे-अनेक प्रकार भावरूप या द्रव्यरूप किया, चाहे पापरूप हों अथवा पुण्यरूप (उसके) बरजोरी से होती हैं और (वह जानता है कि) ये जितनी भी क्रियाएं हैं कोई मोक्षमार्ग नहीं है अतः उन क्रियाओं में ममत्व का त्याग करता है। इस तरह शदज्ञान ही मोक्षमार्ग है यह सिदान्त सिद्ध हुआ। जमे कोई धतूरा पीकर मतवाला हो जाता है उसी प्रकार (मिप्यादृष्टि जोव) शुभ त्रिया मोक्षमार्ग है ऐसे पक्षपात में मतवाला हुआ विपरीत मान्यता को धारण कर पुण्य कर्म को भला मानता है । इस धोखे के नशे के ज्यादा चढ़ जाने से नावना है। भावार्थ-जैसे कोई धतूरा पीकर वेमुध होकर नाचता है वैसे ही मिप्यात्व कर्म के उदय से शुद्ध स्वरूप के अनुभव को सुध नहीं रहती। शुभ पार्म के उपप से जोर बारिक पदवी मिलती है उन्हीं से मुब मान सा है
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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