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________________ पुण्य-पाप एकत्व द्वार विश्वस्योपरि ते तरन्ति सततं ज्ञानं भवन्तः स्वयं ये कुर्वन्ति न कर्म जातु न वशं यान्ति प्रमावस्य च ॥१२॥ अनेक प्रकार की क्रिया को मोक्ष का अवलम्बन (मार्ग) जानकर जो अज्ञानी जीव उनके (उन क्रियाओं के) पालन में तत्पर है वे भी मझधार में वंगे क्योंकि देशदचतन्यवस्तु का प्रत्यक्ष रूप से आस्वादन करने में समर्थ नहीं हैं। क्रिया ही मोक्षमार्ग है वे ऐसा जान कर किया करने में तत्पर हैं। भावार्थ-वे संसार में रुलते हैं, मोक्ष के अधिकारी नहीं हैं । जो जीव शुद्ध चैतन्य प्रकाश के (मात्र) पक्षपाती हैं ऐसे भी जीव संसार में डूबे ही हैं। भावार्य-शुद्ध स्वरूप का उसको अनुभव तो है नहीं परन्तु उसने उसका मात्र पक्षपात पकड़ रक्खा है। ऐसा भी जीव संसार में इबा ही है। क्योंकि वह अत्यन्त स्वेच्छाचारी है। वह चैतन्य स्वरूप का विचार मात्र भी नहीं करता है। ऐसा जो कोई हो, उसको मिथ्यादृष्टि जानना। यहां कोई आशंका करे कि शट स्वरूप का अनुभव मोक्षमार्ग है ऐसी जिसको प्रतीति है वह मिथ्यादृष्टि कमे हुआ? समाधान-वस्तु का स्वरूप ऐसा है कि जितने काल तक शुद्ध स्वरूप का अनुभव होता है उतने काल तक जितनी भी अशुद्धतारूप भाव-द्रव्यरूप क्रियाएं हैं वे सब सहज ही मिट जाती हैं। परन्तु मिथ्यादृष्टि जीव ऐसा मानता है कि सब क्रियाओं के ज्यों की त्यों ही रहते हुए भी शुद्ध स्वरूप का अनुभव मोक्षमार्ग बन जाता है । सो वस्तु का स्वरूप ऐसा तो नहीं है। इसलिए जो वचनमात्र से यह कहता है कि शुट स्वरूप का अनुभव मोक्षमार्ग है वह जीव मिथ्यादृष्टि है। ऐसा कहने से तो कोई कार्य की सिद्धि नहीं है। यदि कोई जीव सम्यक्ष्टि है तो ऊपर कहे दोनों प्रकार के जीवों से ऊपर उठ कर सकल कमों का क्षय करके मोक्षपद को प्राप्त होता है। जो कोई निकट संसारी सम्यकदृष्टि जीव निरंतर शुद्ध ज्ञानरूप परिणमन कर रहा है बह (अनेक प्रकार की क्रियाएं करते हुए भी) अनेक प्रकार की क्रियाओं को मोक्षमार्ग मान कर नहीं करता है। भावार्य-कर्म के उदय से शरीर कंसा ही है परन्तु उसको हेय स्प जानता है। तथा अनेक प्रकार की क्रियाएं भी जैसी है परन्तु उनको हेय रूप मानता है ॥ क्रिया तो कुछ नहीं ऐसा जान कर वह विषयी या असंयमी कदाचित् भी नहीं होता। क्योंकि असंयम का कारण जो तीव्र संक्लेश परिणाम है यह संदेश तो मून ही से चला गया है। ऐसा जो सम्पष्टि
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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