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________________ द्वितीय विविक्तचर्या चूलिका (४) चौपाई- जो चार पराकमवत, संवर साध समाधि लगंत । पुनि गुण-नियमों में रत रहें, परिषह दुख वे सब ही सहें । ____ अर्ष-इसलिए व्रताचरण में पराक्रम करने वाले, संवर में सदा समाधि रखने वाले साधुओं को मुनि-चर्या के गुणों और यम-नियमों की ओर देखना चाहिए । चौपाई- घर तजि अनियत-वास कराय, बहु अजान घर भिक्षा लाय । उपधि अल्प, एकान्त-निवास, कलह छोड़ विचर ऋषि खास ॥ मर्ष-अनिकेत-निवास (गृह-वास का त्याग कर अनियत घर में रहना), समुदानचर्या (अनेक कुलों से भिक्षा लेना), अज्ञात कुलों से भिक्षा लेना, एकान्त-वास करना, उपधि (वस्त्र-पात्र आदि) का अल्प रखना और कलह का त्याग करना, यह विहारचर्या (जीवन-प्रवृत्ति) ऋषियों के लिए प्रशस्त है। (६) चौपाई- पंक्ति-भोज का अरान न लेय, आकोरण अवमान तजेय । ___ जो बाता दे सो ही लेय, असंसृष्ट कर-पात्र तजेय ॥ अर्थ-अकीर्ण (जहां बहुत भीड़-भाड़ हो ऐसा) भोजन, अवमान (जहां गिनती से अधिक खाने वालों की उपस्थिति हो, अर्थात् भोज्यसामग्री कम हो और खाने वाले अधिक हों, ऐसा) भोजन का विवर्जन करे, दृष्टस्थान से लाये गये भक्त-पान का ग्रहण साधुओं के लिए श्रेष्ठ है, संसृष्ट हाथ और पात्र से भिक्षा लेवे। अर्थात जो हाथ या पात्र दाल आदि से लिप्त हो, उसी हाथ या पात्र से आहार लेवे । दाता जो वस्तु दे रहा है, उसी से लिप्त हाथ या पात्र से भिक्षा लेने का साधु यत्न करे।
SR No.010809
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages335
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size13 MB
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