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________________ प्रथम रतिवाक्या चूलिका २७३ चौपाई- संजम तजि कुटुम्ब में जाय, धन विन चितित बहुत रहाय । बंधन-बढ हस्ति-सा होय, पश्चात्ताप कर है सोय ।। अर्थ-विषयभोगों के मोह-जाल में फंसकर संयम से पतित होने वाले साधु को जब खोटे कुटुम्ब की प्राप्ति होती है, तब वह आतंध्यान करता हुआ अनेक प्रकार की चिन्ताओं से उसी प्रकार दुखी होकर पश्चात्ताप करता है, जिस प्रकार कि बन्धन में बंधा हुआ हाथी दुखी होकर पश्चात्ताप करता है। (८) चौपाई-पुत्र-नारि के मोह-वशाय, चिन्तित पीड़ित नित्य रहाय । पंक-पतित गज के सम होय, पश्चात्ताप कर है सोय ॥ ___ अर्ष-पुत्र-स्त्री आदि से घिरा हुआ और मोह-पाश में फंसा हुआ वह संयमभ्रष्ट साधु कीचड़ में फंसे हुए हाथी के समान पीछे बार-बार पश्चात्ताप करता है। (९) चौपाई- यदि न साघुपद तजता तब, होता बहुश्रुत ज्ञानी अब । __ जिन-उपदिष्ट श्रमण-पर्याय, पालन कर आचार्य कहाय ।। अर्थ-संयम से पतित हुआ साधु इस प्रकार से विचार करता है कि यदि मैं साधुपन न छोड़ता और भावितात्मा होकर (आत्म-भावना कर) जिनेश्वर देव द्वारा उपदिष्ट श्रमणपर्याय का पालन करता रहता तो आज बहुश्रुत ज्ञाता होता और आज मैं आचार्य होता। चौपाई -- जो महर्षि संजमरत रहें, देव-लोक-सम सुखिया रहें । संजम-विरत रहें जो लोय, वे नारिक-सम दुखिया होय ॥ अर्थ-जो महर्षि संयम में रत रहते हैं, उनके लिए संयम-पर्याय देवलोक के सुखों के समान आनन्द-दायक है। किन्तु संयम में अरति (अरुचि) रखनेवालों को वही संयम-पर्याय नरक के समान दुखदायी प्रतीत होती है। (११) चौपाई- संयम-रत सुर-सम सुख पावें, अरती नरकोपम दुख पावै । यह निश्चय कर संजम-लोन, रहते हैं पंडित परवीन ।।
SR No.010809
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages335
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size13 MB
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