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________________ नवम विनय-समाधि अध्ययन ( प्रथम उद्दे शक ) (१) जाति विद्या बुद्धि आदि मद के अधीन भयो, त्यों ही कोप कपटकै पायके विकास कों, सेवा-भाव साधवे की विनय अराधवे की, सीखकों न सीखे पाय गुरु के सकास करें। ताकी ज्ञान आदि सवगुनन की सम्पदा कों करत विनास अविनीत-पनो तास को; आपको हरज होत आपने किये ही देखो वांस को विनास करे जैसे फल बांस को ॥ अर्थ- जो मुनि गर्व, क्रोध, माया या प्रमाद-वश गुरु के समीप विनय की शिक्षा नहीं लेता, वही उसके विनाश के लिए होती है । जैसे - कीचक (बांस) का फल उस के ही विनाश के लिए होता है । (२) -पाई - मम्बजानि गुरु कों जन जेई, बाल अलप श्रुत यों लखि लेई । प्रहि मिध्यापन होलत ताही, ते गुरु आसातना कराही ॥ अर्थ- जो मुनि गुरु को - यह मन्द ( बुद्धि - हीन) है, यह अल्पवयस्क और अल्पश्र ुत है - ऐसा जानकर उसके उपदेश को मिथ्या मानते हुए उसकी अवहेलना करते हैं, वे गुरु की आसातना (विराधना) करते हैं । २०५
SR No.010809
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages335
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size13 MB
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