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________________ उत्तमसंयम 0 0 रहेगा तो एक दिन वह उसी का हो जावेगा। उसी को अपनी मां मानने लगेगा, जिसका दूध उसे प्रतिदिन मिलेगा। फिर वह आपकी भैंस को अपनी माँ न मान सकेगा। ___ आप समझते रहेंगे कि आपका पाडा दूसरे की भैंस का दूध पी रहा है, पर वह समझता है कि उसकी भैंस को बच्चा मिल गया है । इसीप्रकार निरन्तर पर को ही जानने वाला ज्ञान भी एक तरह से पर का हो जाता है। वस्तुतः आत्मा को जानने वाला ज्ञान ही प्रात्मा का है, आत्मज्ञान है। पर को जानने वाला ज्ञान एक दष्टि से ज्ञान ही नहीं है; वह तो अज्ञान है, ज्ञान की बर्बादी है । लिखा भी है : आत्मज्ञान ही ज्ञान है, शेष सभी प्रज्ञान । विश्वशान्ति का मूल है, वीतराग-विज्ञान ।।' संयम की सर्वोत्कृष्ट दशा ध्यान है। वह आँख बंद करके होता है, खोलकर नहीं । इससे भी यही सिद्ध होता है कि प्रात्मानुभव एवं प्रात्मध्यान इन्द्रियातीत होता है। प्रात्मानुभव एवं प्रात्मध्यानरूप संयम के लिए इन्द्रियों के प्रयोग की आवश्यकता नहीं है । इन्द्रियज्ञान को भी हेय मानने वाले आत्मार्थी का जीवन अमर्यादित इन्द्रियभोगों में लगा रहे, यह संभव नहीं है । कहा भी है:ग्यान कला जिनके घट जागी, ते जगमाँहि महज वैरागी। ग्यानी मगन विषसुखमाही, यह विपरीति संभव नाहीं ॥४१॥ उत्तमसंयम के धारी महाव्रती मुनिराजों के तो भोग की प्रवृत्ति देखी ही नहीं जाती। देशसंयमी अणुव्रती श्रावक के यद्यपि मर्यादित भोगों की प्रवत्ति देखी जाती है, तथापि उसके तथा अवती सम्यग्दष्टि के भी अनर्गल प्रवृत्ति नहीं होती। आत्मा के आश्रय से उत्पन्न होने वाला अन्तर्बाह्य उत्तमसंयमधर्म हम सबको शीघ्रातिशीघ्र प्रकट हो, इम पवित्र भावना के साथ विराम लेता हूँ और भावना भाता हूँ कि 'वो दिन कब पाऊँ, घर को छोड़ वन जाऊँ।' 'डॉ० भारिल्ल : वीतराग-विज्ञान प्रशिक्षण निर्देशिका, मंगलाचरण २ बनारसीदास : नाटक समयसार, निर्जरा द्वार, पृष्ठ १५६
SR No.010808
Book TitleDharm ke Dash Lakshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1983
Total Pages193
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size13 MB
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