SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 80
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उत्तमसत्य यह तेरी दृष्टि की खराबी है, वस्तुस्वरूप की नहीं। सत्य कहते ही उसे हैं जिसकी लोक में सत्ता हो। जरा विचार करें कि सत्य क्या है और असत्य क्या है ? 'यह घट है' - इसमें तीन प्रकार की सत्ता है। 'घट' नामक पदार्थ की सत्ता है । 'घट' को जानने वाले ज्ञान की सत्ता है और 'घट' शब्द की भी सत्ता है। इमीप्रकार 'पट' नामक पदार्थ, उसको जानने वाले ज्ञान एवं 'पट' शब्द की भी सत्ता जगत में है। जिनकी सत्ता है वे सभी सत्य हैं । इन तीनों का सुमेल हो तो ज्ञान भी सत्य, वाणी भी सत्य, और वस्तु नो मत्य है ही। किन्तु जब वस्तु, ज्ञान और वाणी का सुमेल न हो-मंह से बोले तो 'पट' और इशारा करे 'घट' को अोर -तो वागणी असत्य हो जायेगी। इसीप्रकार सामने तो हो 'घट' और हम उसे जानें 'पट' - तो ज्ञान प्रमत्य (मिथ्या) हो जाएगा; वस्तु तो असत्य होने से रही। वह तो कभी असत्य हो ही नहीं सकती। वह तो सदा ही स्व-रूप से है, और पर-रूप से नहीं है। अतः सिद्ध हया कि असत्य वस्तु में नहीं; उसे जानने वाले ज्ञान में, मानने वाली श्रद्धा में, या कहने वाली वागी में होता है । अतः मैं तो कहता हूँ कि अज्ञानियों के ज्ञान, श्रद्धान और वागी के अतिरिक्त लोक में असत्य को सत्ता ही नहीं है; सर्वत्र सत्य का ही साम्राज्य है। वस्तुतः जगत पीला नहीं है, किन्तु हमें पीलिया हो गया है। अत. जगत पीला दिखाई देता है। इसीप्रकार जगत में तो असत्य की सत्ता ही नहीं है; पर असत्य हमागे दृष्टि में ऐसा ममा गया है कि वह जगत में दिखाई देता है। सुधार भी जगत का नही; अपनी दृष्टि का, अपने ज्ञान का करना है। सत्य का उत्पादन नही करना है, सत्य तो है ही; जो जैसा है वही सत्य है । उसे सही जानना है, मानना है । सही जाननामानना ही मत्य प्राप्त करना है। और आत्म-सत्य को प्राप्त कर राग-द्वेप का अभाव कर वीतरागतारूप परिणति होना सत्यधर्म है । ___ यदि मैं पट को पट कहूँ तो मत्य है, किन्तु पट को घट कहूँ तो भूठ है । मेरे कहने से पट, घट नो हो नहीं जाएगा; वह तो पट ही रहेगा । वस्तु में झूठ ने कहाँ प्रवेश किया ? झूट का प्रवेश तो वारणी में हमा। इसीप्रकार यदि पट को घट जाने तो ज्ञान भूठा हमा, वस्तु तो नहीं। मैंने पट को घट जाना, माना या कहा- इसमें पट
SR No.010808
Book TitleDharm ke Dash Lakshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1983
Total Pages193
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy