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________________ उत्तमशौच ६६ इसी बात को स्पष्ट करते हुए मैंने बहुत पहले लिखा था :यदि हड्डी अपवित्र है, तो वह तेरी नाँहि । और खून भी शुचि है, वह पुद्गल परछाँहि ॥ तेरी शुचिता ज्ञान है, और प्रशुचिता राग । राग - प्राग को त्याग कर, निज को निज में पाग ।। वून, माँस और हड्डी की अपवित्रता तो देह की बात है । आत्मा की पवित्रता तो मोह-राग-द्वेष है तथा आत्मा की पवित्रता ज्ञानानन्दस्वभाव एवं सम्यग्दर्शन - ज्ञान -- चारित्र है । अतः आत्मा को अपवित्र करने वाले मोह-राग-द्वेष को कम करने के लिए अपने को जानिये अपने को पहचानिये, और अपने में ही समा जाइये । 'निज को निज में पाग' का यही आशय है । 1 राम-द्वेष में पच्चीसों कपाएँ ग्रा जाती हैं। इनमें लोभकपाय राग में आती है, यह सब पहले ही स्पष्ट किया जा चुका है जरा विचार तो करो ! ये राग-द्वेषभाव हड्डी - खून - माँस आदि से भी अधिक अपवित्र हैं; क्योंकि हड्डी-ग्वृन-माँस उपस्थित रहते हैं - फिर भी पूर्ण पवित्रता, केवलज्ञान और अनन्नमुख प्रकट हो जाते हैं, आत्मा अमल हो जाता है । किन्तु यदि रंचमात्र भी गग रहे; चाहे वह मंद से मंदार एवं मंदतम ही क्यों न हो, कितना भी शुभ क्यों न हो - तो केवलज्ञान व ग्रनन्तमुख नहीं हो सकता । आत्मा पहिले वीतरागी होता है फिर सर्वज्ञ । सर्वज्ञ होने के लिए वीतरागी होना जरूरी है; वीतदेह नहीं, वीनहड्डी नहीं. वीनवून भी नहीं । इसमे सिद्ध है कि रागभाव हड्डी और खून से भी अधिक अपवित्र है । इस पर भी हम उसे धर्म माने बैठे है । यह सुनकर लोग चौक उठते हैं । कहने लगते हैं कि श्राप कैमी बातें करते हैं - तीर्थंकर भगवान की हड्डी वज्र (वज्रनृपभनाराच संहनन ) की होती है, खून बिल्कुल सफेद दूध जैसा होता है, उन्हें आप अपवित्र कहते हैं ? पर भाई साहब ! प्राप यह क्यों भूल जाते हैं कि खून तो खून ही है, वह चाहे सफेद हो या लाल । इसीप्रकार हड्डी तो हड्डी ही है, वह चाहे कमजोर हो या मजवून । मूल बात यह है कि खून और हड्डी चाहे पवित्र हों या अपवित्र, उनका आत्मा की पवित्रता से कोई सम्बन्ध नहीं है। खून और
SR No.010808
Book TitleDharm ke Dash Lakshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1983
Total Pages193
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size13 MB
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