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________________ उत्तमशौच 'शुचेर्भावः शौचम्' शुचिता अर्थात् पवित्रता का नाम शौच है । शोच के साथ लगा 'उत्तम' शब्द सम्यग्दर्शन को सत्ता का सूचक है । अतः सम्यग्दर्शन के साथ होने वाली वीतरागी पवित्रता ही उत्तम शौचधर्म है। शौचधर्म की विरोधी लोभकपाय मानी गयी है। लोभ को पाप का बाप कहा जाता है, क्योंकि जगत में ऐसा कौनसा पाप है जिसे लोभी न करता हो। लोभी क्या नहीं करता? उसकी प्रवृत्ति जैसे भी हो, येन-केन-प्रकारेण धनादि भोग-सामग्री इकट्ठी करने की ही रहती है। लोभी व्यक्ति की प्रवृत्ति का चित्रण महापंडित टोडरमलजी ने इसप्रकार किया है : "जब इसके लोभकपाय उत्पन्न हो तब इप्ट पदार्थ के लाभ की इच्छा होने से, उसके अर्थ अनेक उपाय सोचता है। उसके साधनरूप वचन बोलता है, शरीर की अनेक चेष्टा करता है, बहुत कष्ट सहता है, सेवा करता है, विदेश गमन करता है; जिसमें मरण होना जाने वह कार्य भी करता है। जिनमें बहुत दुःख उत्पन्न हो ऐसे प्रारम्भ करता है। तथा लोभ होने पर पूज्य व इष्ट का भी कार्य हो, वहाँ भी अपना प्रयोजन साधता है, कुछ विचार नहीं रहता। तथा जिस इष्ट वस्तु की प्राप्ति हुई है, उसकी अनेक प्रकार से रक्षा करता है। यदि इष्ट वस्तु की प्राप्ति न हो या इष्ट का वियोग हो तो स्वयं बहुत संतापवान होता है, अपने अंगों का घात करता है तथा विष आदि से मर जाता है । ऐसी अवस्था लोभ होने पर होती है।" प्राचार्य शुभचन्द्र ने तो 'ज्ञानार्गव' के उन्नीसवें सर्ग में यहाँ तक लिखा है : स्वामिगुरुवन्धवद्धानबलावालांश्च जीर्णदीनादीन । व्यापाद्य विगतशङ्को लोभार्तो वित्तमादत्ते ।।७०॥ ये केचित्मिद्धान्ते दोषाः श्वभ्रस्य साधकाः प्रोक्ताः । प्रभवन्ति निर्विचारं ते लोभादेव जन्तूनाम् ।।७१॥ ' मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ ५३ - - --- --- -
SR No.010808
Book TitleDharm ke Dash Lakshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1983
Total Pages193
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size13 MB
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