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________________ उत्तममार्जव 0 ५१ आसान है, उतना अप्रकट को नहीं। एकेन्द्रिय के मन और वचन का अभाव होने से उसके मायाकषाय अप्रकट रहती है, अतः उसमें मायाकषाय की उपस्थिति पागम से ही जानी जाती है, उसे युक्ति से सिद्ध करना सम्भव नहीं। इसीप्रकार सिद्धों में प्रार्जवधर्म भी पागमसिद्ध ही है, युक्तियों से सिद्ध करना कठिन है। जो यूक्तियाँ दी जावेंगी, अन्ततः वे सव आगमाश्रित ही होंगी। यद्यपि उक्त कारणों के कारण समझने-समझाने में मन-वचनकाय के माध्यम का प्रयोग किया जाता है तथापि समभने-समभाने की इम पद्धति के कारण कोई यदि यही मान ले कि मायाकषाय एवं प्रावधर्म के लिए मन-वचन-काय अावश्यक हैं, तो उसका मानना सही न होगा। यद्यपि मन-वचन-काय की विरूपता नियम से मायाचारी के ही होगी तथा जितने अंश में प्रार्जवधर्म प्रकट होगा, उतने अंश में तीनों की एकरूपना भी होगी ही; तथापि मायाकपाय और आर्जवधर्म इन तक ही सीमित नहीं, और भी है - यहाँ यही बताना है। निष्कर्ष के रूप में कहा जा मकता है कि मन-वचन-काय के माध्यम से प्रार्जवधर्म और मायाकपाय को समझने-समझाने का मूल कारण यह है कि मन-वचन-काय वालों की मायाकषाय और आर्जवधर्म प्रायः मन-वचन-काय के माध्यम से ही प्रकट होते हैं । यदि ऐसी बात है तो फिर तो यह बात ठीक ही है कि :'मन में होय सो वचन उचरिये, बचन होय सो तन सों करिये ।' हाँ! हाँ !! ठीक है, पर किनके लिये, इसका भी विचार किया या नहीं? यह बात उनके लिये है, जिनका मन इतना पवित्र हो गया है कि जो बात उनके मन में आई है वह यदि वागी में भी आ जाय तो फूलों की वर्षा हो और उसे यदि कार्यान्वित कर दिया जाय तो जगत निहाल हो जावे; उनके लिए नहीं, जिनका मन पापों से भरा है; जिनके मन में निरन्तर खोटे भाव ही पाया करते हैं; हिंसा, झट, चोरी, कुशील और परिग्रह का ही चिन्तन जिनके मदा चलता रहता है। यदि उन्होंने भी यही बात अपना ली तो मन के समान उनकी वारणी भी अपावन हो जावेगी तथा उनका जीवन घोर पापमय हो जावेगा।
SR No.010808
Book TitleDharm ke Dash Lakshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1983
Total Pages193
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size13 MB
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