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________________ उत्तमप्रानंद४६ वारणी और काया का प्रभाव होने से विरूपता तो सम्भव नहीं है, तो फिर उनके - मन-वचन-काय की विरूपता है परिभाषा जिसकी ऐसी मायाकषाय की उपस्थिति कैसे मानी जावेगी ? मायाकषाय के प्रभाव में उनके प्रार्जवधर्म मानना होगा जो कि असम्भव है, क्योंकि शास्त्रों में ऐसा स्पष्ट उल्लेख है कि एकेन्द्रिय के ही क्या, एकेन्द्रिय से सैनी पंचेन्द्रिय तक सभी जीवों के चारों कषायें होती हैं, भले ही उनका प्रकटरूप दिखाई न दे। - दूसरे मन-वचन-काय की एकरूपता उल्टी भी तो हो सकती है । जैसे तीनों ही विक्रेता आठ रुपये मीटर के कपड़े का भाव वीस रुपया मीटर बतावें, तो क्या वे सही हो जायेंगे ? नहीं, कदापि नहीं, जबकि उन तीनों के बोलने में एकरूपता दिखाई देगी, क्योंकि बुद्धिपूर्वक पूर्वनियोजित बेईमानी में भी एकरूपता सहज ही पाई जाती है । उसी प्रकार जैसे किसी के मन में खोटा भाव आया, उसे उसने वारणी में भी व्यक्त कर दिया और काया से वैसा कार्य भी कर डाला तो क्या उसके आर्जवधर्म प्रकट हो जावेगा ? फिर तो आर्जवधर्म प्राप्त करने के लिए मन में आये प्रत्येक खोटे भाव को वारणी में लाना और क्रियात्मकरूप देना अनिवार्य हो जायगा, जो कि किसी भी स्थिति में इष्ट नहीं हो सकता । 'मन में होय सो वचन उचरिये' के सन्दर्भ में एक बात यह भी विचारणीय है कि - क्या आर्जवधर्म के लिए बोलना जरूरी है ? क्या बिना बोले प्रार्जवधर्म की सत्ता सम्भव नहीं है ? जो भावलिंगी संत मौनव्रत के धारी हैं क्या उनके आर्जवधर्म नहीं है ? बाहुबली दीक्षा लेने के बाद एक वर्ष तक ध्यानस्थ खडे रहे, कुछ बोले ही नही; तो क्या उनके प्रार्जवधर्म नहीं था ? था, अवश्य था । तो फिर प्रार्जवधर्म होने के लिए बोलना जरूरी नहीं रहा । यदि जैसा मन में हो वैसा ही बोल दें, तो क्या प्रार्जवधर्म हो जायगा ? नहीं, क्योंकि इसप्रकार तो फिर विकृत मन और विकृतवारणी वाला अर्द्धविक्षिप्त व्यक्ति प्रार्जवधर्म का धनी हो जायगा, क्योंकि उसके मन में जो प्राता वह वही बक देता है । बोलने के सम्बन्ध में यहां स्पष्ट किया गया है, उसी प्रकार करने के सम्बन्ध में भी समझ लेना चाहिए ।
SR No.010808
Book TitleDharm ke Dash Lakshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1983
Total Pages193
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size13 MB
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