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________________ ४६ 0 धर्म के दशलक्षण मायाचारी व्यक्ति अपने सब कार्य मायाचार से ही सिद्ध करना चाहता है। वह यह नहीं समझता कि काठ की हांडी दो वार नहीं चढ़ती। एक बार मायाचार प्रकट हो जाने पर जीवनभर को विश्वास उठ जाता है। धोखा-धड़ी से कभी-कभी और किमी-किसी को ही ठगा जा सकता है, सदा नहीं और सबको भी नहीं। यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि लौकिक कार्यों को सिद्धि मायाचार से नहीं, पूर्व पुण्योदय से होती है और पारलौकिक कार्य की सिद्धि में पांचों समवायों के साथ पुरुषार्थ प्रधान है। कार्यसिद्धि के लिए कपट का प्रयोग कमजोर व्यक्ति करता है। सबल व्यक्ति को अपनी कार्यसिद्धि के लिए कपट की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। उसकी प्रवृत्ति तो अपने जोर के जरिये कार्य सिद्ध करने की रहती है। यह भी बात नहीं कि मायाचार की प्रवृत्ति मात्र किसी को ठगने के लिए ही की जाती हो, कुछ लोग मनोरंजन के लिए या यादतवश भी ऐसा करते हैं। उन लोगों को यहाँ की वहाँ भिड़ाने में कुछ मानन्द-सा पाता है। ऐसे लोग अपने छोटे से छोटे मनोरंजन के लिए दूसरों को बड़े से बड़े संकट में डालने से नहीं चूकते । आजकल सभ्यता के नाम पर भी बहत-सा मायाचार चलताहै। बिना लाग-लपेट के कही गई सच्ची बात तो लोग सुनना भी पसन्द नहीं करते। यह भी एक कारण है कि लोग अपने भाव मीधे रूप में प्रकट न कर एड़े-टेड़े रूप में व्यक्त करते हैं । सभ्यता के विकास ने मादमी को बहुत-कुछ मिठबोला बना दिया है। अाज के आदमी के लिए ऊपर से चिकनी-चपड़ी बातें करना और अन्दर से काट करना एक साधारण-सी बात हो गई है। वह यह नहीं समझता कि यह मायाचारी दूसरों के लिए ही नहीं, स्वयं के लिए भी बहुत खतरनाक साबित हो सकती है, उमके मुख-चैन को भंग कर सकती है । भंग क्या कर सकती है, किा रहती है । मायाचारी सदा सशंक बना रहता है. क्योंकि उसने जो दुरंगी नीति चलाई है, उसके प्रकट हो जाने का भय उसे सदा बना रहता है। छल कभी न कभी प्रकट होता ही है, उसकी गप्तता बनाए रखना अपने पाप में प्रसंभव नहीं, तो कठिन काम अवश्य है । वह सदा उसी में उलझा रहता है।
SR No.010808
Book TitleDharm ke Dash Lakshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1983
Total Pages193
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size13 MB
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